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अधारहवीं औरबारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती प्रस्तुत नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती मूलसंप देशीयगण के विद्वान अभयनन्दी के शिष्य थे । इन्होंने स्वयं अपने को अभयनन्दी का शिष्य सूचित किया है। अभयनन्दी उस समय के बड़े सैद्धान्तिक विद्वान थे । उनके वीरनन्दी, और इन्द्रनन्दी भी शिष्य थे। ये दोनों नेमिचन्द्र के ज्येष्ठ गुरुभाई धे। इस कारण उन्होंने उनको भी गुरु तुल्य मानकर नमस्कार किया है और उनका अपने को शिष्य भी बतलाया है । नेमिचन्द्र ने अपने एक गुरु कनकनंदी का उल्लेख किया है । और लिखा है कि उन्होंने इन्द्रनन्दी के पास से सकल सिद्धान्त को सुनकर 'सत्वस्थान' की रचना की है।३ इस सत्वस्थान प्रकरण को उन्होंने गोम्मटसार कर्मकाण्ड के तीसरे सत्वस्थान अधिकार में प्राय: ज्यों का त्यों अपनाया है। यह ग्रन्थ "विस्तरसत्वत्रिभंगी नाम से जैन सिद्धान्त भवन पारा में विद्यमान है। मेरे संग्रह की तीन पत्रात्मक प्रति में इसका नाम 'विशेषसत्ता त्रिभंगी' दिया है । नेमिचन्द्र गंमवंशीय राजा राचमल्ल के प्रधान मन्त्री और सेनापति चामुण्डराय के समकालीन थे। यह अत्यन्त प्रभावशाली और सिद्धान्तशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् थे। इन्होंने गोम्मटसार की ३९७ गाथा में लिखा है कि जिस प्रकार चक्रवर्ती षट् खण्ड पृथ्वी को अपने वासनाधीन परत है, इसी कारगने मति चक्र से षट्, खण्डागम को सिद्ध कर अपनी इस कृति में भर दिया है । संभवत: इसी सफलता के कारण उन्हें सिद्धान्त चक्रवर्ती की उपाधि प्राप्त हई हो। चामुण्डराय अजित'सेनाचार्य के शिष्य थे। चामुण्डराय ने नेमिन्द्र का भी शिष्यत्व ग्रहण किया था । चामुण्डराय को प्रेरणा से नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार की रचना की थी। मोम्मट चामुण्डराय का घरुनाम था। जो मराठी तथा कन्नड़ो भाषा में प्रायः उत्तम, सन्दर, प्राकर्षक, एवं प्रसन्न करने वाला जैसे अर्थों में व्यवहुत होता है | और राय उनकी उपाधि थी। चामुण्ड राय के इस 'गोम्मट' नाम के कारण ही उनके द्वारा बनवाई हुई बाहुबली की मूर्ति 'गोम्मटेश्वर' तथा 'गोम्मटदेव' जैसे नामों से प्रसिद्धि को प्राप्त हुई है। उन्हीं के नाम की प्रधानता को लेकर अन्य का नाम 'गोम्मटसार' दिया गया है। जिसका अर्थ गोम्मट के लिये खींचा गया पूर्व के (षट् वण्डागम तथा धवलादि) ग्रन्थों का सार । इसी प्राशय को लेकर ग्रन्थ का 'गोम्मदसंग्रह सूत्र' नाम दिया गया है। जैसा कि कर्मकाण्ड की निम्न गाथा से प्रकट है
गोम्मट-संग्रहसत्तं गोम्मट सिहस्वरि गोम्मट जिणो य ।
गोम्मटरायविणिम्मिय-वक्खिण कुक्कुडजिणो जयउ॥९६८ इस गाथा में तीन कार्यों का उल्लेख करते हुए उन्हीं का जयघोषण किया गया है। इन्हीं तीन कार्यों में बामडराय की ख्याति है और वे हैं-१ गोम्मट संग्रह सूत्र २ गोम्मट जिन और दक्षिण कुक्कुटजिन । गोम्मटसंग्रह सत्र का अर्थ गोम्मट के लिये किया गया सार रूप संग्रह ग्रंथ गोम्मटसार । गोम्मट जिन पद का अभिप्राय नेमिनाय भगवान की उस एक हाथ प्रमाण इन्द्रनीलमणि की प्रतिमा से है जिसे गोम्मटराय ने बनवाकर गोम्मट-शिखरचन्द्रगिरि पर स्थित अपने मंदिर (बस्ति) में स्थापित किया था । और जिसके सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि वह
मटायविणिमिसहरूवरि गोमनम्न माथा से ,
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१. इदि रणेमिचंद मुणिणाणप्पसु देणाभयदि वच्छेण ।
रइयो तिलोयसारो खमंतु बहु सदाइरिपा । २. मिऊण अभवणंदि सुद-सापर पारगिदणदिनुरु । बरवीरणदिपाहं पयडीणं पश्चय वोच्छं ॥७८५-गो.क.
णमह गुणरयणभूसप सिद्धतामिय महद्धि भवभाव । वर बोरणंदिचंदं हिम्मलगुण मिददि गुरु ॥८७६ गो का वीरिदणंदि वच्छेण प्पसुदेणभयणंदि सिस्सेण। दसणचरित्तलद्धी सु सूयिया मिचदेश ||६४ लब्धिसार ३. पर इदणदि गुरुणो पासे सोऊण सबल सिद्धतं ।
सिरिकरणयदि गुरुणा सत्तट्ठाद्धं समुदिळें ॥३९६ गो० के. ४. जह चक्केशाय पक्की छपखंड साहियं अविघेण ।
तह मइचक्केण मया छक्खई साहियं सम्मं ॥३९५ यो का १. देखो, मनेकान्त वर्ष ४ किरण ३-४ में डा. ए. एन. उपाध्ये को गाम्पट' नामक लेख