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________________ ६६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ किसी साधु को ले जाकर ज्ञान प्रचार करने का निश्चय किया। वह कल्याण ( Klas ) मुनि से मिला और उनसे यूनान चलने की प्रार्थना की। मुनि कल्याण आचार्य दीलामस के संघ के एक शिष्य साधु थे। उन्होंने उसको प्रार्थना स्वीकार कर ली । परन्तु आचार्य महोदय को कल्याण का यूनान जाना सम्भवतः पसन्द न था । जब सिकन्दर तक्षशिला से अपनी सेना के साथ यूनान को लौटा, तब कल्याण मुनि भी उसके साथ विहार कर रहे थे। मुनि कल्याण ने एक दिन मार्ग में ही सिकन्दर की मृत्यु की भविष्यवाणी की। मुनि के वचनों के अनुसार ही लोन पहुँचने पर ई० पू० ३२३ में अपरान्ह वेला में सिकन्दर की मृत्यु हो गई । मृत्यु से पहले सिकन्दर ने मुनि महाराज के दर्शन किये और उनसे उपदेश सुना । सम्राट् की इच्छानुसार यूनानी कल्याण मुनि को आदर के साथ यूनान ले गये। कुछ वर्षों तक उन्होंने यूनानियों को उपदेश देकर धर्म प्रचार किया । अन्त में उन्होंने समाधिमरण किया। उनका शव राजकीय सम्मान के साथ चिता पर रख कर जलाया गया । कहते हैं, उनके पाषाण चरण एथेन्स में किसी प्रसिद्ध स्थान पर बने हुए हैं । उस समय तक्षशिला में अनेक दिगम्बर मुनि रहते थे। इस बात की पुष्टि अनेक इतिहास ग्रन्थों से होती है। सिकन्दर ने जब श्रोनेसीक्रेट्स को दिगम्बर मुनियों के पास भेजा, उसका कहना है कि उसने तक्षशिला में २० स्टैडीज दूरी पर १५ व्यक्तियों को विभिन्न मुद्राओं में खड़े हुए बैठे हुए या लेटे हुए देखा, जो बिल्कुल नग्न थे । वे शाम तक इन ग्रासनों से नहीं हिलते थे। शाम के समय शहर में आ जाते थे। सूर्य का ताप सहना सबसे कठिन कार्य है । परन्तु श्रातापन योग का अभ्यास करने वाले मुनिजन इसको शान्ति के साथ सहन करते थे । परिषह सहिष्णु बन कर ही मुनिजन कर्मक्षय के योग्य ग्रात्म-शक्ति को संचित करते थे । श्राचार्य गुणधर- -Plutarch-A.I-P. 71 - ( प्लूटार्च, एंशियंण्ट इंडिया पृ० ७१ ) जे काय पाहुणे य-जय मुज्जलं श्रणं तत्थं । गाहाहि विवरियं तं गुणहर भट्टारयं वंदे । treaलायां वीर सेनः से वे अपने समय के विशिष्ट शानी विद्वान् थे । वे पांचवें ज्ञानप्रवाद पूर्व स्थित दशमवस्तु के तीसरे पेज्जदोस पाहुड के पारगामी थे। उन्हें पेज्जदोस पाहुड के अतिरिक्त महाकम्मपयडि पाहुड का भी ज्ञान था। उक्त पाहुड सम्बन्ध रखने वाले विभक्ति, बन्ध, संक्रमण और उदय उदीरणा जैसे पृथक् प्रधिकार दिये हैं। इनका महाकम्म पर्या पाहुड के चौबीस अनुयोग द्वारों से क्रमश: छठे, दशवें और बारहवें अनुयोग द्वारों से सम्बन्ध है। महाकर्म प्रकृति पाहुड कि गुणधर का २४ व अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार भी कसाय पाहुड के अधिकारों में व्याप्त है। इससे स्पष्ट महाकर्म प्रकृति के भी ज्ञाता थे । इन्होंने अंगज्ञान का दिन-प्रतिदिन लोप होते देखकर श्रुतविच्छेद के भय से और प्रवचन वात्सल्य से प्रेरित होकर १८० गाथा सूत्रों में उसका उपसंहार किया और उस विषय को स्पष्ट करने के लिए ५३ विवरण गाथाओं का भी निर्माण किया । अतः ५३ विवरण गाथाओं सहित उसकी संख्या २३३ गाथाओं के परिमाण को लिये हो गई । प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम पेज्जदोस पाहुड है। पेज्ज का अर्थ राग श्रीर दोस का श्रयं द्वेष है। अतः इसमें राग-द्वेष-मोह का विवेचन करने के लिये कर्मों की विभिन्न स्थितियों का चित्रण किया गया है। राग-द्वेष क्रोध, मान, माया और लोभादिक दोषों की उत्पत्ति, स्थिति, तज्जनित कर्मबन्ध और उनके फलानुभवन के साथसाथ उन रागादि दोषों को उपशम करने — दवाने, उनकी शक्ति घटाने, क्षीण करने ग्रात्मा में से उनके अस्तित्व को मिटा देने, नूतन अंध रोकने और पूर्व में संचित कषाय मल चक्र को क्षीण करने- उसका रस सुखाने - पोर श्रात्मा के शुद्ध एवं सहज विमल अकषाय भाव को प्राप्त करने का सुन्दर विवेचन किया गया है । मोह कर्म मात्मा का सबसे प्रबल शत्रु है, राग-द्वेषादिक दोष मोह कर्म को ही पर्याय हैं। कर्म किस स्थिति में और किस कारण से आत्मा के साथ सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं, उनके सम्बन्ध से आत्मा में कैसे सम्मिश्रण होता है और उनमें किस -
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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