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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
पापं लुम्पति पाति जीवनिवहं ध्यानं समालम्बते । सोऽयं नंदतु साधुरेव हरषी पुष्णाति धर्म सदा ।
कवि की अन्य कृतियाँ :
इन ग्रन्थों के प्रतिरिक्त ऋषि की 'दश लक्षण जयमाला' श्रीर 'पोडशकारण जयमाला' ये दोनों पूजा ग्रन्थ भी मुद्रित हो चुके हैं। इनके सिवाय पञ्जुण्ण चरिउ, सुदसंणचरिउ, करकण्डुचरिउ ये तीनों ग्रन्थ अभी अनुपलब्ध हैं । इनका अन्वेषणकार्य चालू है । । 'सोऽहं युदि' नाम की एक छोटी-सी रचना भी अनेकांत में प्रकाशित हो चुकी हैं। अभी अभी सूचना प्राप्त हुई है कि रघु कवि का तिसट्टि पुरिस गुणालंकार ( महापुराण) ग्रन्थ बाराबकी के शास्त्र भण्डार से पं० कैलाशचन्द्र सि० शा० को प्राप्त हुआ है, जिसकी पत्र संख्या ४६५ है ५० संधियां १३५७ कदवक हैं । यह प्रति सं० १४६६ की लिखी हुई है ।
- सिद्धचक्र विधि ( श्रपालच० संधि 3 )
कवि धू ने अपने से पूर्ववर्ती कवियों का अपनी रचनाओं में ससम्मान उल्लेख किया है। उनके नाम इस प्रकार हैं- १ देवनन्दी (पूज्यपाद ) २ रविषैण ३ चउमुह ४ द्रोण ५ स्वयंभूदेव, ६ वज्रसेन, ७ पुन्नाट संघी जिनसेन ८ पुष्पदन्त और दिनकर सेन का अनंग चरित। इनमें से अधिकांश कवियों का परिचय इसी ग्रंथ में अन्यत्र दिया हुमा है ।
बसा-
कवि हरिचन्द
कवि हरिचन्द का वंश अग्रवाल है। पिता का नाम जंडू और माता का नाम बील्हादेवी था। कवि ने अपने गुरु का कोई उल्लेख नहीं किया ।
कवि की एक मात्र रचना 'प्रणत्थमिय कहा' है। प्रस्तुत कथा में १६ कड़वक दिये हुए है, जिनमें रात्रि भोजन से होने वाली हानियों को दिखलाते हुए उसका त्याग करने की प्रेरणा को गई है और बतलाया है कि जिस तरह धन्धा मनुष्य ग्रासको शुद्धि शुद्धि सुन्दरता आदि का अवलोकन नहीं कर सकता। उसी प्रकार सूर्य के प्रस्त हो जाने पर रात्रि में भोजन करने वाले लोगों से कीड़ी, पतंगा, झींगुर, चिउटो डांस मच्छर बादि सूक्ष्म और स्थूल जीवों की रक्षा नहीं हो सकती। बिजली का प्रकाश भी उन्हें रोकने में समर्थ नहीं हो सकता। रात्रि में भोजन करने से भोजन में उन विषैले जीवों के पेट में चले जाने से अनेक तरह के रोग हो जाते हैं, उनसे शारीरिक स्वास्थ्य को बड़ी हानि उठानी पड़ती है। प्रतः धार्मिक दृष्टि और स्वास्थ्य को दृष्टि से रात्रि में भोजन का परित्याग करना हो यस्कर है जैसा कि कवि के निम्न पद्म से स्पष्ट है:
जिहि बिट्टि जय सरह अंधुजेम, नहि गाल-सुद्धि भण होय केम । किम कोड-पयंग भिंगुराद्द पिप्पीलाई डंस मच्छराई । खज्जूरई कष्णललाइयाएं प्रवरइ जीव जे बहु सवाई । अण्णाणी णिसि भुंजंत एण, पसु सरिस परिउ धप्पा तेण ॥ जंवालि विवीणउकरि उज्जोवज ग्रहिउ जीउ संभवई परा । भ्रमराई पयंग बहुविह भंगई मंडिय बीसइ' जित्यु धरा ॥ ५ ॥
कवि ने ग्रन्थ में रचनाकाल नहीं दिया। परन्तु रचना पर से वह रचना १५वीं शताब्दी को जान पड़ती है।
म० पद्मनन्दी
मुनि पद्मनी भट्टारक प्रभाचन्द्र के पट्टधर विद्वान थे। विशुद्ध सिद्धान्तरत्नाकर और प्रतिभा द्वारा प्रतिष्ठा को प्राप्त हुए थे। उनके शुद्ध हृदय में प्रभेद भाव से आलिङ्गन करती हुई ज्ञान रूपी हंसी आनन्दपूर्वक
अनेकान्त वर्ष ६ किरण में प्रकाशित महाकवि रघू नाम का लेख तथा वर्णी प्रतिष्ठा प्रतिभाग रिष्ठः । पचनन्दी ||
- शुभचन्द पट्टावली
१. विशेष परिचय के लिए देखिए अभिनन्दन ग्रन्थ पृ० ३६८ । २. श्रीमान् मुनीन्द्र पट्टे, शश्वत विशुद्ध सिद्धान्त रहस्य रत्नरत्नाकरानन्दतु