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१५वी १६वीं १७वी और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि
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क्रीडा करती थी वे स्यादाद सिन्धु रूप प्रमत के वर्धक थे। उन्होंने जिनदीक्षा धारण कर जिनवाणो योर पश्वा को पबित्र किया था। महावती पुरन्दर तथा शान्ति से रागांकुर दग्ध करने बाले वे परमहंस निर्ग्रन्थ, पुरुषार्थ शाला, प्रशेष शास्त्रज्ञ सर्वहित परायण मुनिश्रेष्ट पद्यनन्दी जयवन्त रहें। इन विशेषणों से पडानन्दो की महत्ता का महज ही बोध हो जाता है। इनकी जाति ब्राह्मण थी। एक बार प्रतिष्ठा महोत्सव के समय व्यवस्थापक गृहस्थ की अविद्यमानता में प्रभाचन्द्र ने उस उत्सव को पट्टाभिषेक का रूप देकर पद्यनन्दी को अगोपट्ट पर प्रतिष्ठित किया था। इनके पट्ट पर प्रतिष्ठित होने का समय पटावली में सं० १३८५ पौष शुक्ला सप्तमी बनलाया गया है। वे उस पट्ट पर संवत् १४७३ तक तो आसीन रहे ही हैं। इसके अतिरिक्त और कितने समय तक रहे, यह कुछ ज्ञात नहीं हुमा, और न यह ही ज्ञात हो सका कि उनका स्वर्गवास कहां और कब हुमा है ?
कुछ विद्वानों की यह मान्यता है कि पद्मनन्दो भट्टारक पद पर स. १४६५ तक रहे हैं । इस सम्बन्ध में उन्होंने कोई पुष्ट प्रमाण तो नहीं दिया, किन्तु उनका केवल वैसा अनुमान मात्र है पोर यह भी संभव है कि परट पर शुभचन्द्र को प्रतिष्ठित कर प्रतिष्ठादि कार्य सम्पन्न किये हों कुछ समय और अपने जीवन से भूम इल का अवकृत करते रहे हों। अतः इस मान्यता में कोई प्रामाणिकता नहीं जान पड़तो। क्योंकि संवत् १४.७३ का पद्मकीति चित पार्श्वनाथ चरित की प्रशस्ति से स्पष्ट जाना जाता है कि पद्मनन्दी उस समय तक पट्ट पर विराजमान श्र, जैसा कि प्रशस्ति के निम्न वाक्य से प्रकट है---
"कून्य कूवाचार्यान्वये भश्री रत्नकोति देवास्तेषां पट्टे भट्टारक श्री प्रभाचन्द्र देवा तत्पटटे भ० स्त्री पद्म मन्दि देवास्तेषां पट्ट प्रबर्तमाने
(मुद्रित पाश्र्वनाथ चरित प्रशस्ति) इससे यह भी ज्ञात होता है कि पद्मनन्दी दीर्घजीवी थे। पटावली में उनकी आयु निन्यानवे वर्ष अठाईस दिन की बतलाई गई है और पट्टकाल पंसठ वर्ष आठ दिन बतलाया है ।
यहाँ इतना और प्रकट कर देना उचित जान पड़ता है कि वि० सं० १४७६ में असवाल कवि द्वारा रचित 'पासणाहचरिउ' में पद्मनन्दी के पट्ट पर प्रतिष्ठित होने वाले न शुभचन्द्र का उल्लेशनिम्नागों में किया है"तहो पष्ट्रवर ससिणामें सुहससि मणि पयर्षकयचंद हो।" चूंकि सं० १४७४ में पपनन्दी द्वारा प्रतिष्ठित मति लेख उपलब्ध है, मतः उससे स्पष्ट शात होता है कि पमनन्दी ने सं० १४७४ के बाद और सं०१४७९ से पूर्व किसी समय शुभचन्द्र को अपने पद पर प्रतिष्ठित किया था।
कदिमसवाल ने कुशातं देश के करहल नगर में सं० १४७१ में होने वाले प्रतिप्ठोत्सव गा उल्लेख किया है। और पद्यनन्दी के शिष्य कवि हल्ल या जयमित्र हल्ल द्वारा रचित 'महिलणाह' काव्य की प्रशसा का भी उल्लेख किया है । उक्त ग्रन्थ भ० पमनन्दी के पद पर प्रतिष्ठित रहते हुए उनके शिष्य द्वारा रचा गया था । कवि हरिचन्द ने अपना वर्धमान काव्य भी लगभग उसी समय रचा था। इसी से उसमें कवि ने उनका खुला यशोगान किया है:'पत्मणंवि मुणिणाह गणिव, चरण सरण गुरु का हरिबह
-(वर्धमान काव्य) मापके अनेक शिष्य थे, जिन्हें पानन्दी ने स्वयं शिक्षा देकर विद्वान बनाया था। भ० शुभचन्द, तो उनके
१. हंसोज्ञानमरालिका समसमा श्लेवप्रभूताभुता । मन्दं कोरति मानसेति विशदे यस्यानिशं सम्वतः ।। स्थावादामृतसिन्धुवर्धनविषौ श्रीमप्रभेन्दुप्रभाः। पट्ट सूरि मल्लिका स जयतात् श्रीपप्रनन्दी मुनिः ।। महावत पुरन्दरः प्ररमदग्ष रोगाङ्कुरः । स्फुरत्परमपौरुषः स्थितिरघोषशास्त्रार्थवित् यशोभर मनोहरीकृत समस्तविश्वम्भरः । परोपकति तत्परो जयति पपनन्दीश्वरः॥
-शुभचन्द्र पट्टावलो