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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
कबि बर्द्धमान मट्टारक यह मलसंघ बलात्कारगण और भारतो गच्छ के विद्वान थे। इनको उपाधि 'परवादि पंचानन थी, परांगचरित की प्रशस्ति में कवि ने अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है :
स्वस्ति श्रीमूलसंघे भुवि विदितगणे श्रीबलात्कारसंज्ञ, श्रीभारत्याख्यगच्छे सकलगुण निधिर्वमानाभिवानः । भासीबट्टारकोऽसो सुचरितमकरोच्छीवरङ्गस्य राज्ञो, भव्यश्रेयांसि तन्वद् भुविचरितमिदं वर्ततामार्कतारम् ॥
-वरांगचरित १३-१७, वर्द्धमान नाम के दो विद्वानों का उल्लेख मिलता है। उसमें एक वर्द्धमान न्यायदीपिका के कर्ता धर्मभूषण के गुरु थे। और 'देशभक्त्यादि महाशास्त्र के भी कर्ता थे, और दूसरे वर्द्धमान हमच शिलालेख के रचयिता है । इनका समय १५३० ई. के लगभग है। विजयनगर के शक सं० १३०७ (सन् १३८५ ई०) में उत्कीर्ण शिलालेख में भट्टारख धर्मभूषण के पदघर और सिहनन्दी योगीन्द्र के चरण कमलों के भ्रमर वर्द्धमान मुनि थे, उनके शिष्य धर्मभूषण हुए। जैसा कि उसके निम्नपद्यों से प्रकट है:
पट्टे तस्य मुनेरासीमानमुनीश्वरः । श्री सिहनन्वि योगीन चरणाम्भोज षट्पदः ।।१२ शिस्यस्तस्य गुरोरासीद्धर्मभूषणवेशिकः ।
भट्टारक मुनिः श्रीमान् शल्यत्रय विजितः ॥१३ इनके समय में सका । १३.७ १३८५ ई०) की फाल्गुण कृष्ण द्वितीया को राजा हरिहर के मंत्री चत्रदण्ड नायक के पुत्र इरुमप्प ने विजयनगर में कून्यनाथ का मन्दिर बनवाया था।
दश भक्त्यादि शास्त्र के निम्न पद्य में उल्लिखित विजयनगर नरेश प्रथम देवराज राजाधिराज परमेश्वर की उपाधि से विभूषित थे। इनका राज्य संभवतः सन् १४१८ ई. तक रहा है। और द्वितीय देवराज का समय सन् १४१६ से १४४६ ई. तक माना जाता है।
राजाधिराज परमेश्वर वैवराज, भूपाल मोहिलसदंन्नि सरोजयुग्मः ।
श्रीषर्द्धमान मुनि बल्लभ मोदय मुख्यः श्रीधर्मभूषण सुखी जयतो क्षमाडचः ।। भट्टारक धर्मभूषण ने न्यायदीपिका की अन्तिम प्रशस्ति में, और पुष्पिका में भट्टारक वर्द्धमान का उल्लेख किया है:
मदगुरोर्वद्धमानेशो बर्द्धमानदयानिधेः । श्रीपदस्नेह सम्बन्धात् सिद्धेयं न्यायबीपिका ।।
-न्यायदीपिका प्रश० इन सब उल्लेखों से स्पष्ट है कि धर्मभूषण के गुरु वही भट्टारक वर्द्धमान हैं, जो वरांग चरित के कर्ता हैं। वर्द्धमान भट्टारक का समय धर्मभूषण के गुरु होने के कारण ईसा की चौदहवीं शताब्दी का उत्तरार्घ है।
वरांग चरित्र संस्कृत भाषा का लघुकाय ग्रन्थ है। इस काव्य में १३ सर्ग हैं जिसमें बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ के वरदत्त गणघर के समकालीन होने वाले राजा वरांग का चरित दणित किया गया है। यह जटिल
१. तस्य श्री चवदण्डाधिनायकस्मोजितश्रियः । पासीदिरुग दाडेपो नन्दनो लोकनन्दनः ।। २१ तस्मिन्निरुग दण्डेपाः पुरेचारुशिलामयम् ।। श्री कुन्थ जिन नाथस्थ चैत्यालयमनीकरत् ।। २८
विजयनगर शि० नं०२