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________________ 1 A १५, १६वीं १७वीं, और १०वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि ૪૬+ कीर्तिसिंह वीर और पराक्रमी शासक था। उसने अपना राज्य अपने पिता से भी अधिक विस्तृत किया था । वह् दयालु एवं सहृदय था । जैनवर्म के ऊपर उसकी विशेष आस्था थी। वह अपने पिता का आज्ञाकारी था, उसने अपने पिता के जैनमूर्तियों के खुदाई के अवशिष्ट कार्य को पूरा किया था। इसका पृथ्वीपाल नाम का एक भाई पर भी था। जो लड़ाई में मारा गया था। कीर्तिसिंह ने अपने राज्य को यहाँ तक पल्लवित कर लिया था कि उस समय उसका राज्य मालवे के सम कक्षका हो गया था। दिल्ली का बादशाह भी कीर्तिसिंह की कृपा का अभिलाषी बना रहना चाहता था । सन् १४६५ (वि० सं० १५२२ ) में जौनपुर के महमूदशाह के पुत्र हुसैनशाह ने ग्वालियर को विजित करने के लिए बहुत बड़ी सेना भेजी थी। तब से कोंतिसिंह ने देहली के बादशाह बहलोल लोदो का पक्ष छोड़ दिया था और जौनपुर वालों का सहायक बन गया था । सन् १४७८ (वि० सं० १५३५ ) में हुसैनशाह दिल्ली के बादशाह बहलोल लोदी से होकर अपनी पत्नी और सम्पत्ति वगैरह को छोड़कर तथा भागकर ग्वालियर में राजा कीर्तिसिंह की शरण में गया था तब कीर्तिसिंह ने घनादि से उसकी सहायता की थी और कालपी तक उसे सकुशल पहुंचाया भी था । इसके सहायक दो लेख सन् १४६८ और (वि० सं० १५२५) सन् १४७३ (वि० सं० १५३० ) के मिले हैं। कीर्तिसिंह की मृत्यु सन् १४७६ ( वि० सं० १५३६) में हुई थी। अतः इसका राज्य काल सम्वत् १५१० के बाद से सं० १५३६ तक पाया जाता है। इन दोनों के राज्यकाल में ग्वालियर में जैनधर्म खूब पल्लवित हुआ । रचनाकाल कवि रइधू के जिन ग्रन्थों का परिचय दिया गया है, यहाँ उनके रचनाकाल के सम्बन्ध में विचार किया जाता है। कवि की सबसे प्रथम कृति श्रात्म-सम्बोध काव्य है। उसकी सं० १४४८ की लिखित प्रति आमेर भण्डार में सुरक्षित है । इधू के सम्मत्त गुणनिधान और सुकोसलचरिउ इन दो ग्रन्थों में ही रचना समय उपलब्ध हुआ सम्मत्त गुणनिधान नाम का ग्रन्थ वि० सं० १४९२ की भाद्रपद शुक्ला पूर्णिमा मंगलवार के दिन बनाया गया है और जो तीन महीने में पूर्ण हुआ था और सुकोशलचरिउ उसले चार वर्ष बाद विक्रम सं० १४९६ में माघ कृष्णा दशमो के 1 अनुराधा नक्षत्र में पूर्ण हुआ है । सम्मत्तगुणनिधान में किसी ग्रन्थ के रचे जाने का कोई उल्लेख नहीं है, हाँ कोशलचर में पार्श्वनाथ पुराण, हरिवंश पुराण और बलभद्रचरित इन तीन ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है, जिससे स्पष्ट है कि ये तीनों ग्रन्थ भी संवत् १४६६ से पूर्व रचे गये हैं और हरिवंश पुराण में त्रिषष्टिशलाका रुप चरित ( महापुराण) मेघेश्वरचरित, यशोधर चरित, वृत्तसार, जोबवरचरित थोर पार्श्वचरित इन छह ग्रन्थों के रचे जाने का उल्लेख है, जिससे जान पड़ता है कि ये ग्रन्थ भी हरिवंश की रचना से पूर्व रचे जा चुके थे। सम्मइ जिनचरिउ में, पार्श्वपुराण, मेघेश्वरचरित, त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित ( महापुराण) बलभद्रचरित ( पउमचरिउ ) सिद्धचक्र विधि, सुदर्शनचरित और धन्यकुमारचरित इन सात ग्रन्थों के नामों का उल्लेख किया गया है, जिससे यह ग्रन्थ भी उक्त सम्वत् से पूर्व रचे जा चुके थे । १. बहलोल लोदी देहली का बादशाह था उसका राज्य काल सन् १४५१ वि०स० १५०८) से लेकर सन् १४८६ (वि० सं० १५४६ ) तक ३० वर्ष पाया जाता है। " ९. देखो, मोझा जी द्वारा सम्पादित टाट राजस्थान हिन्दी पृष्ठ २५४ ३. दवाव उत्तरालि, दरिस इगय विक्क मरायकालि । वक्तु जिविय समस्ति भव मासम्मि स-सेम पवित्र । मिरिण कुजवारे संभोई, मुहयारे सुहणामें जइ । हि मास रहि पुण्ड सम्मत्तगुणा हिहि ४. "सिरि विक्कम समयंतरालि बट्टंतर इंदु सम धूउ ।" विभ्रम कालि । उदय संवधर अग्ग छाव बहिपुस्y जाय पुण्ण । माह दुहिम दिम्भ, बाराहुरिकल पडिय सकम्मि | "
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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