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________________ ४६४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ चौबीसी मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी' पश्चात सं०१४८१ में इंगरसिंह राजगद्दी पर बैठा । राजा गर्रासह राजनीति में दक्ष, शत्रयों के मान मर्दन करने में समर्थ, और क्षत्रियोचित क्षात्रतेज से अलंकृत था। गुण समूह से विभूषित, अन्याय रूपी नागों के विनाश करने में प्रवीण, पंचांग मंत्रशास्त्र में कुशल तथा असि रूप अग्नि से मिथ्यात्व-रूपी वंश का दाहक था । उसका यश सब दिशात्रों में व्याप्त था। वह राज्य पट्ट से अलंकृत, विपुल बल से सम्पन्न था। इंगरसिंह की पटरानी का नाम दादे था, जो अतिशय रूपवती और पतिव्रता थी । इनके पुत्र का नाम करणसिंह, कोतिमिह या कीर्तिपाल था, जो अपने पिता के समान ही गुणज, बलवान और राजनीति में चनूर था। डूंगरसिंह ने नरवर के किले पर घेरा डाल कर अपना अधिकार कर लिया था। शत्रु लोग इसके प्रताप एवं पराक्रम से भयभीत रहते थे । जनधर्म पर केवल उसका अनुराग ही न था किंतु उस पर वह अपनी पुरी प्रास्था भी रखता था। फलदासने जैन मूर्तियों की सगाई राहतो रुपये व्यय किए थे। इससे ही उसको आस्था का अनुमान किया जा सकता है। डंगरसिंह सन् १४२४ (वि० सं० १४८१) में ग्वालियर की गद्दी पर बैठा था । उसके राज्य समय के दो मूर्ति लेख सम्बत १४१६ और १५१० के प्राप्त हैं । सम्बत् १४८२ की एक, और सम्बत् १४५६ को दी लेखक प्रशस्तियो पं० विखूध श्रीधर के संस्कृत भविष्यदत्त चरित्र और अपभ्रंश-भाषा के सूकमालचरित्र की प्राप्त हुई हैं। इनके सिवाय 'भविग्यदत पंचमी कथा' की एक अपूर्ण लेखक प्रशस्ति कारंजा के ज्ञान भण्डार का प्रति से प्राप्त हुई है । डूंगरसिंह ने वि० सं० १४८१ से सं० १५१० या इसके कुछ बाद तक शासन किया। उसके बाद राज्य सत्ता उसके पुत्र कोतिसिंह के हाथ में पाई थी। कविवर रइधू ने राजा डूंगरसिंह के राज्य काल में तो मनेक ग्रन्थ रचे ही हैं किन्तु उनके पुत्र कीतिसिह के राज्य काल में भी सम्यक्त्व कौमुदी (सावय चरिउ) की रचना की है। ग्रन्थकर्ता ने उक्त प्रन्थ को प्रशस्ति में कीतिसिंह का परिचय कराते हुए लिखा है कि वह तोमर कुल रूपी कमलों को विकसित करने वाला सूर्य था और दुर्बार शत्रुमों के संग्राम से अतृप्त था । वह अपने पिता डूंगरसिंह के समान ही राज्य भार को धारण करने में समर्थ था। बन्दी-जनों ने उसे भारी अर्घ समर्पित किया था। उसकी निर्मल यश रूपी लता लोक में व्याप्त हो रही थी। उस समय वह कलिचक्रवर्ती था। तोमरकुलकमलवियास मित्त, दुचारवरिसंगर प्रतित्तु । इंगरणिवरज्जघरा समस्थु, बंबीयण समप्पिय भूरि प्रत्यु । चउराय विज्जपालण प्रतंव, हिम्मल जसबल्ली भुवरणकंदु । कलिचक्कवट्टि पायडणिहाणु, सिरिकित्तिसिंधु महियहपहाणु ॥ -सम्यक्त्व कौमुदी पत्र २ नागौर भण्डार १. चौबीसी धातु-१५ इंच-संवत् १४७६ वर्ष बैशाखसुदि ३ शुक्रवासरे श्री गणपति देव राज्य प्रवर्तमाने श्री मूलसंघ नंद्याम्नाये भट्टारक शुभचन्द्र देवा मंडलाचार्य पं. भगवत तत्पुत्र संघवी खेमा भार्या खेमादे जिनबिम्ब प्रतिष्ठा कारापितम्। नयामंदिर लश्कर २. सं० १४८२ वैशाखसुदि १० श्रीयोगिनीपुरे साहिजादा मुरावखान राज्य प्रवर्तमाने श्रीकाष्ठा संघ माथुशन्दये पुष्करगरणे आवायं श्रीभावसेन देवास्तत्प? म. श्रीगुणकीर्तिदेवास्तरिदायी यश कीति देवा उपदेशेन लिखापितं ।। -जैन अन्यसूची भा० ५ पृ० ३६३ ३. सन् १४५२ (वि० सं० १५०६) में जौनपुर के सुलतान महमूदशाह शर्की और देहली के बादशाह बहलोल लोदी के बीच होने वाले संग्राम में कीर्तिसिंह का दूसरा भाई पृथ्वीपाल महमूदशाह के सेनापति फतहखां हावीं के हाथ से मारा गया था। परंतु कविवर रधु के ग्रंथों में कीर्तिसिंह के दूसरे भाई पृथ्वीपाल का कोई उल्लेख नहीं पाया जाता। -- देखो ढाड राजस्थान पृ० २५० स्वर्गीय महामना गौरीशंकर हीराचंद जी ओझा कृत ग्वालियर की तंवर वंशावामी टिप्पणी।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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