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१५वीं, १६वों, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि
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कवि ठकुरसी प्रस्तुत कवि चाटसू (वर्तमान चम्पावती) नगरी के निवासी थे। इनकी जाति खंडेलवाल और गोत्र 'अजमेरा' था । ठकुरसी के पिता का नाम 'घेल्ह' था जो कवि थे। इनकी कबिता मेरे अवलोकन में नहीं पाई, किन्तु कवि ने पंचेन्द्रिय वेलि' के प्रतिम पद के 'कवि-घेल्ह सूतन् गुण गाऊँ' वाक्य में उन्हें स्वयं कवि ने सूचित किया है । कवि के पुत्र का नाम नेमिदास था, जिसने मेघमाला व्रत का भावना की थी। कवि की रचनामों का काल सं. १५७८ से १५८५ है । मेघमाला बय कथा अपभ्रंश भाषा में रची गई है, किन्तु टोप रचनाएं हिन्दी भाषा के विकास को लिये हुए हैं । कृपण चरित्र, पंचेन्द्रिय बेल, नेमि राजमती वेल और जिन चउवीसी।
मेघमाला ब्रत कथा-इसमें ११५ कडवक है जो लगभग १५ श्लोंकों के प्रमाण को लिये हुए हैं। इस मेघमालायत के अनुष्ठान की विधि और उसके फल का वर्णन किया है। इस व्रत का अनुष्ठान भाद्रपद नाम की प्रतिपदा से किया जाता है। व्रत के दिन उपवास पूर्वक जिनपूजन अभिषेक, स्वाध्याय और सामायिक प्रादि धार्मिक प्रनष्ठान करते हुए समय व्यतीत करना चाहिए । इस व्रत को पांच प्रतिपदा, और पांच वर्ष तक सम्पन्न करना चाहिए । पश्चान उसका उद्यापन करे । यदि उद्यापन को शक्ति न हो तो दुगने समय तक व्रत करना चाहिए।
इस व्रत का अनष्ठान चाटस् (सम्पावती) नगरी के श्रावक-याविकायों ने सम्पन्न किया था। उम ममय राजा रामचन्द्र का राज्य था। वहां पाश्वनाथ का सुन्दर जिनालय था और तत्कालीन भट्टारक प्रभाचन्द्र भो (जिनकी दीक्षा नं १५५१ में हुई थी) मौजद थे। जो गणधर के ममान भव्यजना को धर्मामन का पान करा रहे थे । वहाँ खण्डेलवाल जाति के अनेक धावक रहते थे। उनमें 40 माल्हा पूत्र कवि मलिदाम ने कवि ठकुरसी को मेघमाला व्रत की कथा के कहने को प्रेरणा की थी। वहाँ के श्रावक सदा धर्म का अनुष्ठान करते थे। हाथ साह नाम के एक महाजन और भट्टारक प्रभाचन्द्र के उपदेश से कवि ने 'मेघमाला' व्रत को करना चाहिए, इसका संक्षिप्त वर्णन किया । वहाँ तोपक, माल्हा और मल्लिदास ग्रादि विद्वान भी रहते थे। श्रावकजनों में प्रमुख जीगा, ताल्हू, पारस, नमिदास, नाथसि, भुल्लण और वडली आदि ने इस व्रत का अनुष्ठान किया था। कवि ने इस ग्रन्थ की रचना सं० १५८० प्रथम श्रावण शुक्ला छट के दिन पूर्ण किया था।
कवि ने सं०१५७८ में 'पारस श्रवण सत्ताइसी' नाम की एक कविता लिखी थी, जो एक ऐतिहासिक घटना को प्रकट करती है। और कवि के जीवन काल में घटी श्री. उसका कदि ने अाँखों देखा वर्णन किया है । कवि की सभी रचनाए” लोकप्रिय और सरल है।
ब्रह्म जीबंधर यह माथुर संघ विद्यागण के प्रख्यात भट्टारक यशकीति के शिष्य थे। ग्राप संस्कृत और हिन्दी भाषा के भयोग्य विद्वान थे। प्रापकी संस्कृत भाषा की दो कृतियाँ उपलब्ध हैं। यद्यपि वे लघुकाय हैं किन्तु महत्त्वपूर्ण हैं। उनमें पहली कृति 'चविंशति तीर्थकर स्तवन जयमाल हैं। इसका परलोकन करने से ज्ञात होता है कि जीबंधर संस्कत भाषा में सून्दर कविता कर सकते थे। पाठक पार्श्वनाथ और महावीर स्तवन-विषयक निम्न दो पद्य पढ़ें। जो भावपूर्ण और सरस एवं सरल हैं :
"विधुरित विघ्नं पार्श्वजिनेशं दुरित तिमिरभर हनन दिनेशम् । प्रज्ञान म तीव्रकठारं वांछित सुखदं कक्षणाधारं ॥ 'जीवंधर' नुत-चरण सरोज विकसित निर्मल कोलिपयोजम ।
कल्याणीवपकवलोकन्द, बन्चे वीरं परमानन्धम् ॥ दूसरी संस्कृत रचना 'श्रुतजयमाला' है, जिसमें प्राचाराङ्ग प्रादि द्वादश अंगों का परिचय दिया गया है।
१. देखो अनेकान्त वर्ष १५ किरण ४ में प्रकाशित 'चतुविशति तीर्थ कर-जयमाला।' सन् १९६२ ।