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________________ ५२२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ रचना सुन्दर और संस्कृत पद्यों में निबद्ध है। इनके अतिरिक्त कवि की दस रचनाएं हिन्दी भाषा की उपलब्ध हैं, जिनका परिचय 'राजस्थान जैन साहित्य परिषद्' की सन् १९६७-६८ की स्मारिका पृष्ठ पर लेखक ने दिया है। जो 'राजस्थान के संत ब्रह्म जीबंधर' नाम से मुद्रित हुआ है । कवि की उन रचनाओं के नाम इस प्रकार हैं-गुणठाणावेलि, खटोला रास, झुबक गोत, मनोहर, रास या नेमिचरित रास, सतीगीत, बीस तीर्थकर जयमाला. बीस चौबीसी स्तुति, ज्ञान विरगा विनति मुक्तावली रास और पालोचना प्रादि । रचनाएँ सुन्दर और सरल हैं। ब्रह्म जीवंधर विक्रम की १६वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के विद्वान हैं। इन्होंने सं० १५६० में बैसाख वदी १३ सोमवार के दिन भट्टारक विनयचन्द्र की स्वोपज्ञ चुनड़ी टीका की प्रतिलिपि अपने ज्ञानाबरणीय कर्म के क्षयार्थ की थी। इससे इनका समय १६वीं शताब्दी का उत्तराखं सुनिश्चित है। ___पं० नेमिचन्द (प्रतिष्ठा तिलक के कर्ता) यह देवेन्द्र और प्रादि देवी के द्वितीय पुत्र थे। इनके दो भाई और भी थे जिनका नाम पादिनाथ और विजयम था। इन्होंने अभयचन्द्र उपाध्याय के पास तर्क व्याकरणादि का ज्ञान प्राप्त किया था। नेमिचन्द्र के दो पुत्र थे-कल्याणनाथ और धर्मशेखर । दोनों ही विद्वान थे। नेमिचन्द्र ने सत्यशासन मुख्य प्रकरणादि ग्रन्थ रचे । प्रतिष्ठा तिलक को इन्होंने अपने मामा ब्रह्मसूरि के आदेश से बनाया था। कवि ने उस में अपने कुटुम्ब की दश पीढ़ियों तक का परिचय दिया है, किन्तु उसमें रचनाकाल नहीं दिया। पर प्रतिष्ठा तिलक का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि इनही यह सपना पंआपके रहत पाद रची गई है। संभवतः यह रचना १५वीं शताब्दी की है। ग्रंथ सामने न होने से उस पर विशेष विचार नहीं किया जा सकता। कवि धर्मधर पं० धर्मधर इक्ष्वाकु वंश के गोलाराडान्वयी साहु महादेव के प्रपुत्र मोर पं. यशपाल के पुत्र थे। यशपाल कोविद थे। उनकी पत्नी का नाम 'हीरा देवी' था । उससे भव्य लोगों के बल्लभ रत्नत्रय के समान तीन पुत्र थे, उनमें दो ज्येष्ठ और लघु पुत्र धर्मधर थे। विद्याधर, देवघर और धर्मधर । इनमें विद्याधर और देवघर धावकाचार के पालक और परोपकारक थे और धर्मघर धर्म कर्म करने वाला था ! धर्मधर की पत्नी का नाम 'नन्दिका'पा जो शीलादि सद्गुणों से अलंकृत थी । उससे दो पुत्र और तीन पुत्री उत्पन्न हुई थी। पुत्रों का नाम पाराशर पौर मनसुख था'। इस तरह कवि का परिवार सम्पन्न था। कवि ने मूल संघ सरस्वती गच्छ के भट्टारक पप्रनन्दी, शुभचन्द्र पौर भट्टारक जिनचन्द्र का उल्लेख किया है जिससे ज्ञात होता है कि कवि मूल संघ की आम्नाय का था। उसने पचनन्दी योगी से विद्या प्राप्त की थी और वह उन्हें गुरु रूप से मानता था। कवि का समय विक्रम की १६वीं शताब्दी का पूर्वाध है क्योंकि कवि ने नागकुमार १. कोषिवः यशपालस्य समभूत्तनु-जगत्रयं । वल्लभं भव्यलोकानां रत्नत्रयमिवापरं ॥२॥ वैयाकरणपारीण विषणो विषणोपमः । होराकुक्षि समुत्पन्नः आयो विद्या पराधिपः ।।३।। देवान्नरतो निल्प ततो देवधरोऽभवत् । श्रावकाचार शुखात्मा परोपकृति तत्परः ।।४।। अमी धर्मघर पश्चात् तृतीयो धर्मकर्मकृत् । पभनन्दि गुरोर्लन्ध्या विद्यापरम् योगिनः ॥५॥ -श्रीपाल परित प्रशस्ति, भट्टारक भण्डार, अजमेर ।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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