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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
था।' जो विनय गुण से सम्पन्न था। वीर कवि विद्वान् और कवि होने के साथ-साथ गुणग्राही न्यायप्रिय और समुदार व्यक्ति था । वह साधुचरित पुरुषों के प्रति विनयी, अनुकम्पावान और धर्मनिष्ठ श्रावक होते हुए भी वह सच्चा वीर पुरुष था । कवि को समाज के विभिन्न वर्गों में जीवन-यापन करने के विविध साधनों का साक्षात अनुभव था । प्राचीन कवियों के प्रसिद्ध ग्रन्थों, अलंकार और काव्य लक्षणों का कवि को तल स्पर्शी ज्ञान था वह कालिदास मोर are की रचनाओं से प्रभावित था। उनकी गुण ग्राहकता का स्पष्ट उल्लेख ग्रन्थ की चतुर्थं सन्धि के अन्त में पाये जाने वाले निम्न पद्य से मिलता है :
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गुणा ण सुष्णंसि गुणं गुनिलो न सर्हति परगुणे बट्ठ । बल्लहगुणा दि गणिणो विरला करवीर-सारिच्छा ॥
अगुण अथवा निर्गुण पुरुष गुणों को नहीं जानता और गुणीजन दूसरे के गुणों को भी नहीं देखते- उन्हें सह भी नहीं सकते, परन्तु वीर कवि के सदृश कवि विरले हैं, जो दूसरे के गुणों को समादर की दृष्टि से देखते हैं। वीर केवल कवि ही नहीं थे, किन्तु भक्ति रस के भी प्रेमी थे। उन्होंने मेघवन में पाषाण का एक विशाल जिन मन्दिर बनवाया था और उसी मेघवन पट्टण में वर्द्धमान जिनकी विशाल प्रतिमा की प्रतिष्ठा की थी । ग्रन्थ प्रशस्ति में कवि ने मन्दिर निर्माण श्रीर प्रतिमा प्रतिष्ठा के संवतादि का कोई उल्लेख नहीं किया। किन्तु इतना तो निश्चित ही है कि जंबूसामिचरिउ की रचना से पूर्व मन्दिर निर्माण और प्रतिमा प्रतिष्ठादि का कार्य सम्पन्न हुमा है ।
रचना
कवि की एक मात्र रचना 'जंबूसा मिचरिउ' है । इस ग्रन्थ का दूसरा नाम 'श्रृंगारवीर महाकाव्य' है । इसमें म केवली जंबू स्वामी के चरित्र का चित्रण किया गया है। इस ग्रन्थ की रचना में कवि को एक वर्ष का समय लग गया था, क्योंकि कवि को राज्यादि कार्य के साथ धर्म, अर्थ और काम की गोष्ठी में भी समय लगाना पड़ता था, प्रतएव ग्रन्थ रचना के लिये अल्प समय मिल पाता था । ग्रन्थ ११ सन्धियों में विभाजित है । चरित्र चित्रण करते हुए कवि ने महाकाव्यों में रस और अलंकारों का सरस वर्णन करके ग्रन्थ को अत्यन्त भाकर्षक और पठनीय बना दिया है। कथा पात्र भी उत्तम हैं जिनके जीवन-परिचय से ग्रन्थ को उपयोगिता की अभिवृद्धि हुई है । गार रस, वीर रस, और शान्त रस का यत्र-तत्र विवेचन दिया हुआ है। कहीं-कहीं शृंगार मूलक वीररस है । ग्रन्थ में
१. सुह सील सुद्धवंसो जणणी सिरि संतुमा भरिया || ६ || जस्सय पण वया लहूणो सुमः सहोयरा तिथिए । सीहल्ल लक्खणंका जसद्द नामेति विखाया ॥७॥ जाया जस्स मट्ठिा जिराव पोमावर पुणो वीया । लीलावदति तइया पच्छिम भज्जा जयादेवी ||८|| पदमकलतं गो संताल कमत्त विवि पारोहो । विरामगुणमरिंग निहाणो तरणओ तह नेमिचंदोति || ६ ||
- जंबू सामि च अन्तिम प्रशस्ति २. सो जयज कई बोरो वीरजिदिस्स कारिर्य जेण । पाहारणमयं भवरणं विदे मेहवणे ॥ १० ॥ इत्येवदिर मेहवण पट्टणे थढमाण जिरगपडिमा । तेरणा वि महाकरणा वीरेण पर्याया
पवरा ॥ ४
- जंबू स्वामि च० प्रशस्ति
प्रयत्न करने पर मी 'मेघवन' का कोई विशेष परिचय उपलब्ध नहीं हुआ, परन्तु 'मेहवन' नाम का कोई स्थान विशेष रहा है जो उस समय धन-धाम्यादि से सम्पन्न था।
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