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________________ मारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य २६९ अलंकारों का चयन दो प्रकार का पाया जाता है, एक चमत्कारिक और दूसरा स्वाभाविक । प्रथम का उदाहरण निम्न प्रकार है : भारह-रण-भूमिय स-रहमीस हरि प्रज्जण उल सिंहडिवोस । गुरु पासत्याम कलिंग चार गय पग्जिर-ससर-महीससार। लंका नयरी सरायणीय चंदणहि चार कलहावणीय । सपलास-सकंचण अक्ख अड्ढ सविहीसण-कइकुल फल रसड्छ । इन पद्यों में विन्ध्यावटी का वर्णन करते हुए श्लेष प्रयोग से दो अथं ध्वनित होते हैं-स रह-रथ सहित और एक भयानक जीवन हरि-कृष्ण और सिंह, अर्जुन मौर वृक्ष नहुल और नकुल जीव, शिखडि और मयूर ग्रादि स्वाभाविक विवेचन के लिये पांचवी सन्धि से शृंगार मूलक वोर रस का उदाहरण निम्न प्रकार हैकेरल नरेश भगांक को पूत्री विलासवती को रत्नशेखर विद्याधर से संरक्षित करने के लिये जंबू कमारपोल ही यह करने जाते हैं। पीछे मगध के शासक श्रेणिक या बिम्बसार की सेना भी सजधज के साथ युद्धस्थल में पहुंच जाती है. किन्त अंबकमार अपनी निर्भय प्रकृति और असाधारण धैर्य के साथ युद्ध करने को प्रोत्तेजन देने वाली वीरोक्तियाँ भी कहते हैं तथा अनेक उदात्त भावनाओं के साथ सैनिकों की पत्नियां भी युद्ध में जाने के लिये उन्हें प्रेरित करती हैं । युद्ध का वर्णन भी कवि के शब्दों में पढिये। अक्क मियंक सक्क कंपावणु, हा मुय सीयहे कारणे रावणु । दलिय वप्प दप्पिय मा मोहणु, कवणु अणत्यु पत्तु बोज्जोहणु । त म दोसु बहव किउ धावइ, अणउ करतु महावा पावइ । जिह जिह बंड करंबिउ जंपड, तिह तिह खेयर रोसहि कंपइ । घद्र कंठ सिरजालु पलित्तउ, चंडगंड पासेय पसिसउ। दहा हरु गंजज्जलु लोयणु, पुरु खुरंत णासउ भयावण । पेक्खे वि पह सरोसु सण्णामहि, बुत्तु पयोहरु मंतिहि तामहि। अहोमहा हय हय सासस गिर, पहचाधि उद्दण्ड गम्भिर किर। अण्णहो जोह एह कहो बग्गए, खयर वि सरिस गरेस हो अगए। भणइ कुमार एह र लुजउ, वसण महष्णवि तुम्महि खउ । रोसन्ते रिजहियच्छु पिणा सुणइ, कज्जाकज्ज बलाबलु ण मुणइ। प्रस्तुत ग्रन्थ की भाषा प्रांजल, मुबोध, सरस और गम्भीर अर्थ की प्रतिपादक है, और इसमें पध्पदन्नाट महाकवियों के काव्य-ग्रन्थों की भाषा के समान ही प्रौढ़ता और अर्थ गौरव की छटा यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होती है। जम्बूस्वामी अन्तिम केवली हैं । इसे दिगम्बर वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय निर्विवाद रूप से मानते हैं और भगवान महावीर के निर्वाण से जम्ब स्वामी के निर्माण तक की परम्परा भी उभय सम्प्रदायों में प्राय एक-सी है, किन्तु उसके बाद दोनों में मतभेद पाया जाता है। जम्बू स्वामी अपने समय के ऐतिहासिक महापुरुष हुए हैं 1 वे काम के असाधारण विजेता थे। उनके लोकोत्तर जीवन की झांकी ही चरित्रनिष्ठा का एक महान् आदर्श रूप जगत को प्रदान करती है। उनके पवित्रतम उपदेश को पाकर ही विद्युच्चर जैसा महान चोर भी अपने चौर कर्मादि दुष्कर्मों का परित्याग कर अपने पांच सौ योद्धाओं के साथ महान तपस्वियों में अग्रणीय तपस्त्री हो जाता है और व्यंतरादि कृत महान् उपसर्गों को ससंघ साम्यभाव से सहकर सहिष्णुता का एक महान आदर्श उपस्थित करता है। उस समय मगध देश का राजा बिम्बसार या धणिक था, उसकी राजधानी राजगृह थी, जिसे वर्तमान में १: देखो जैन अन्य प्रशस्ति संग्रह भा० २ का ५४ पृष्ठ का टिप्पण। २. दिगम्बर जैन परम्परा में जम्बू स्वामी के पश्चात् विष्णु नन्दि, नन्दिमित्र, अपराजित, गोबर्धन और भद्रबाह ये पांच श्रुतकेवली माने जाते हैं। किन्तु वेताम्बर परम्परा में प्रभव, गम्भव, यशोभद्र, आर्य संभूतिविजय और भद्रबाहु इन पांच श्रुतकेवलियों का नामोल्लेख पाग जाता है। इनमें भर बाहु को छोड़ कर चार नाम एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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