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________________ ५३० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ कवि दोड्डय्य यह देवप्प का पुत्र था, जो जैन पुराणों की कथा में निपुण था पोर पंडित मुनि का शिष्य था। देवप जैन ब्राह्मण था और उसका गोत्र 'माय' था। यह होय्सल देश के चंग प्रदेश के पिरिय राज शहर में राज्य करने वाले यदुकुल तिलक विरुपराज का दरबारी कत्थक था। यह राजा साहित्य का बड़ा प्रेमी था, और इसने शान्ति जिन की एक मूर्ति को विधिवत् तैयार करा कर उसे स्थापित किया था। ऐसा लेख मद्रास के अजायबघर में मौजूद एक जैन मति के नीचे उत्कीर्ण किया हुआ है। __ कदि दोडल्य ने अपने संग्रप्रभ चरित में विरुप राजेन्द्र की स्तुति की है। जैन ब्राह्मण पं. सलिवेन्द्र का पुत्र बोम्मरस इसी राजा का प्रधान था। नन्द्रप्रभ चरिर में निधन और ४४७५ पद्य हैं। ग्रन्थ के प्रारम्भ में कवि ने लिखा है कि मैं कवि परमेष्ठी और गुणभद्र की कही हुई कथा को कानड़ी में लिखता है। पहले चन्द्रनाथ, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय, साधु, रत्नत्रय, सरस्वती, गणधर, ज्वालामालिनी, विजयपक्ष पौर पिरिय शहर के अनन्त जिन को, और कमलभंग महिषिकुमारपुराधीश्वर ब्रह्मदेव की स्तुति की है। ग्रन्थ में कुछ पूर्ववर्ती कवियों का भी स्मरण किया है। कवि का समय १५५० के लगभग अर्थात् ईसा की १६वीं शताब्दी है। पं० जिनदास यह वंद्य विद्या में निष्णात वैद्य थे। इनके पिता का नाम 'रेखा था जो वैद्य थे। इनकी माता का नाम 'रिखधी' था और पत्नी का नाम जिनदासी था, जो रूप लावण्यादि गुणों से अलंकृत थी। पंडित जिनदास रणस्तम्भ दुर्ग के समीप नवलक्षपुर के निवासी थे । ग्रन्थ प्रशस्ति में उन्होंने अपने पूर्वजों का परिचय निम्न प्रकार दिया है: उनके पूर्वज 'हरिपति' नाम के वणिक थे। जिन्हें पपावती देवी का वर प्राप्त या मोर जो पेरोजशाह नामक राजा से सम्मानित थे। उन्हीं के वंश में 'पद्म' नामक के श्रेष्ठो हुए, जिन्होंने अनेक दान दिये और ग्याससाहि नाम के राजा से बहु मान्यता प्राप्त की। इन्होंने शाकुम्भरी नगरी में विशाल जिन मन्दिर बनवाया था। वे इतने प्रभावशाली थे कि उनकी प्राज्ञा का किसी भी राजा ने उल्लंघन नहीं किया। वे मिथ्यात्व के नाशक थे और जिन गुणों के नित्य पूजक थे। इनके दो पुत्र थे। उनमें प्रथम का नाम विझ था, जो वैद्यराट् था। बिझ ने शाह नसोर से उत्कर्ष प्राप्त किया था। इनके दूसरे पुत्र का नाम 'सुहृज्जन' था, जो विवेकी और वादी रूपी गजों के लिए सिंह के रामान था। सबका उपकारक और जैन धर्म का प्राचरण करने वाला था। यह जिन चन्द्र भट्टारक के पट्ट पर प्रतिष्ठित हुआ था। इनका पट्टाभिषेक सं० १५७१ (सन् १५१४) में सम्मेदशिखर पर सुवर्ण कलशों से हुमा था। इन्होंने राजा के समान विभूति का परित्याग कर भट्टारक पद प्राप्त किया। इनका नाम भटारक प्रभाचन्द्र रखा गया । वे इस पट्ट पर नौ वर्ष ४ मास और २५ दिन रहे । उक्त बिझ वैद्य का पुत्र धर्मदास हुपा, जिसने महमूद शाह से बहमान्यता प्राप्त की थी। यह भी वैद्य शिरोमणि और विख्यातकीर्ति था । इसे भी पद्मावती देवी का वर प्राप्त था। इसकी पत्नी का नाम 'धर्मश्री' था, जो अद्वितीय दानी, सदृष्टि, रूपवान्, मन्मथविजयी और प्रफुल्ल वदना थी। इसका रेखा नाम का एक पुत्र था, जो वैद्यकला में दक्ष, वैद्यों का स्वामी और लोक में प्रसिद्ध था। यह वैद्य विद्या' इनकी कुल परम्परा से चलीमा रही थी और उससे आपके वंश की बड़ी प्रतिष्ठा थी। रेखा अपनी बंद्य विद्या के कारण रणस्तम्भ (रणथम्भोर) नामक दुर्ग के बादशाह शेरशाह द्वारा सम्मानित हुआ था, इन्हीं रेखा का पुत्र ५० जिनदास था। इनका पुत्र नारायण दास नाम का था। पंडित जिनदास ने शेरपुर के शान्तिनाथ चैत्यालय में ५१ पद्योंवाली 'होलीरेणुका चरित्र' की प्रति का अवलोकन कर सं० १६०८ (सन् १५५१ ई.) में ज्येष्ठ शुक्ला दसवीं शुक्रवार के दिन इस 'होलीरेणु का चरित्र' ग्रन्थ की रचना ८४३ लोकों में की है। ... T.J..58.
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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