SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 541
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५, १६, १७वीं और १८वी शत्राब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि ५२६ इनके अतिरिक्त अन्य ग्रन्थ मेरे अवलोकन में नहीं थाए, इससे उनके सम्बन्ध में लिखना कुछ शक्य नहीं है। पूजा ग्रन्थ भी सामने नहीं हैं इसलिए उनका परिचय भी नहीं दिया जा सकता । - कषि की संस्कृत रचनाओं के प्रतिरिक्त अनेक हिन्दी रचनाएँ भी हैं जिनके नाम यहाँ दिए जाते हैंमहावीर छन्द ( स्तवन २७ पद्य) विजयकीर्ति छन्द, तस्वसार दूहा, नेमिनाथ छन्द श्रादि । भ० शुभचन्द्र का कार्यकाल सं० १५७३ (सन् १५१६ ) से १६१३ (सन् १५५६ ) ४० वर्ष रहा है। इनके अनेक शिष्य थे - श्री पालवर्णी, सकलचन्द्र लक्ष्मीचन्द्र और सुमतिकीर्ति आदि। इनका समय १६वीं और १७वीं शताब्दीका पूर्वार्द्ध है | अमरकीति यह मूल संघ सरस्वतो गच्छ के भट्टारक मल्लिभूषण के शिष्य थे । मल्लिभूषण मालवा की गद्दी के पट्टधर थे। इन्हीं के समकालीन विद्यानन्द और श्रुतसागर थे। अमरकीर्ति ने जिन सहस्र नाम स्तोत्र की टीका प्रशस्ति में विद्यानंद और श्रुतसागर दोनों का आदरपूर्वक स्मरण किया है। इनकी एकमात्र कृति जिन सहस्रनाम टोका है। प्रशस्ति में रचनाकाल दिया हुआ नहीं है। फिर भी अमरकीर्ति का समय विक्रम की १६वीं शताब्दी है । टीका अभी अप्रकाशित है उसे प्रकाश में लाना चाहिए। अमरकीति की यह टीका भ० विश्वसेन द्वारा अनुमोदित है । वीर कवि या बुधव कवि का वंश अग्रवाल था और यह साहू तोतू के पुत्र थे तथा भट्टारक हेमचन्द्र के शिष्य थे । संस्कृत भाषा के विद्वान और कवि थे । इनकी दो कृतियाँ मेरे देखने में भाई हैं- वृहत्सिद्धचक्र पूजा और धर्मचक्र पूजा । वृहत् पूजा- यह सिद्ध की विस्तृत पूजा है जिनदास काष्ठा संघ माथुरान्वय और पुष्करगण के भट्टारक कमलकीर्ति कुमुदचन्द्र और भट्टारक यशसेन के अन्वय में हुए हैं। यशसेन की शिष्या राजश्री नाम की थी, जो संयम लिया थी। उसके भ्राता पद्मावती पुरवाल वंश में समुत्पन्न नारायण सिंह नाम के थे, जो मुनियों को दान देने में दक्ष थे । उनके पुत्र जिनदास नाम के थे, जिन्होंने विद्वानों में मान्यता प्राप्त की थी। इन्हीं पंडित जिनदास के ग्रादेश से उक्त पूजा-पाठ रचा गया है। जिसे कवि ने वि० सं० १५६४ में दिल्ली के बादशाह बाबर के राज्यकाल में रोहितासपुर (रोहतक) के पार्श्वनाथ मन्दिर में बनाया है । धर्मचक्र पूजा - इस पूजा-पाठ को भी उक्त पद्मावती पुरवाल पंडित जिनदास के निर्देश से रोहितासपुर के पार्श्वनाथ जिन मन्दिर में अग्रवाल वंशी गोयल गोत्री साधारण के पुत्र साहू रणमल्ल के पुत्र मल्लिदास के लिए बनाया गया है । इसकी श्लोक संख्या ८५० है । इसे कवि ने सं० १५८६ में पूस महीने के शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन समाप्त किया है'। इस ग्रन्थ की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि कवि ने नन्दीश्वर पूजा पौर ऋषिमंडल यंत्र पूजा-पाठ की भी रचना की है। ये दोनों पूजा ग्रन्थ मेरे देखने में नहीं बाए, इसी से उनका परिचय नहीं दिया। इनके अतिरिक्त afa की अन्य क्या कृतियाँ हैं वह अन्वेषणीय है । कवि का समय विक्रम की १६वीं शताब्दी है । १. वेदाष्टवाण राशि - संवत्सर विक्रमनृपावमाने । रुहितासनाम्नि नगरे बब्बर मुगलाधिराज सदाज्ये ॥ ? श्रीपार चैत्यगेहे काष्ठा संघे च माथुराम्यके ॥ पुष्करगणे बभूव भट्टारकमणिकमल कीर्त्यः ॥ २ ( सिद्ध० पू० प्र०) २. चन्द्रवाणाष्ट षष्ठांक: (१५८६) वर्तमानेषु सर्वतः । श्री विक्रमनुपान्नूनं नय विक्रमशालिनः ||६|| पौष मासे सिते पक्षे षष्ठदु दिन नामके । रुहितासपुरे रम्ये पार्श्वनाथस्य मन्दिरे ॥२॥ मंत्रक पूजा प्र०
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy