________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
परवादिमल्ल के समकालीन राजा, जिसकी सभा में उन्होंने ग्रपने नाम की सार्थकता प्रकट की थी, राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज प्रथम शुभतुरंग (७५७ – ७७३ ) था । संभव है इन्हीं परवादिमल्ल ने धर्मोत्तर कृत न्यायविन्दु टिप्पण पर टीका लिखी हो। प्रतएव इन परवादि मल्ल प्रथम का समय ७:३० से ८०० के लगभग हो सकता है।
家
यह प्रशस्ति मल्लिषेण मुनि के शक सं० १०५० (सन् १९२८) में उनके शरीर त्याग करने की स्मृति में उत्कीर्ण की गई थी। उक्त प्रशस्ति में कलंक का साहसतुरंग की सभा में वादियों को अपने नाम के अर्थ का करना इस बात का साक्षी है कि प्रशस्तिकार इन दो राजाओं को पृथक् समझते थे । इस प्रशस्ति में अनेक प्राचीन प्राचार्यो के नामों का उल्लेख किया गया है। महावादी समन्तभद्र, महाध्यानी सिंहनन्दि, षण्मासवादी वक्रयीव, नवस्त्रोतकारी वचनन्दि, त्रिलक्षणकदर्शन के कर्ता पात्रकेसरी गुरु, सुमति सप्तक के रचयिता सुमतिदेव, महाप्रभावशाली कुमारसेन, मुनि श्रेष्ठ चिन्तामणि, दण्डि कवि द्वारा स्मृत कवि चूड़ामणि श्री वर्धदेव और सप्ततिवाद विजेता महेश्वर मुनि के बाद घटावतीर्ण लारादेवी के विजेता अकलंक देव का स्तवन किया गया है। इससे इस प्रशस्ति की महत्ता स्पष्ट है ।
रविषेणाचार्य
रविषेणाचार्य ने अपने संघ और गण-गच्छादि का कोई उल्लेख नहीं किया। परन्तु सेनान्त नाम होने से वे सेनसंघ के विद्वान जान पड़ते हैं । इन्होंने अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख निम्न प्रकार प्रकट किया हैसविन्द्रगुरो दिवाकर यतिः शिष्योऽस्य चान्मुनिस्तस्मालक्ष्मणसेन सन्मुनिरवः शिष्यो रबिस्तु स्मृतम् ॥
इन्द्र गुरु के दिवाकर यति, दिवाकर यति के प्रन्मुनि, पन्मुनि के लक्ष्मणसेन, और लक्ष्मणसेन के शिष्य रविषेण थे। इसके सिवाय इन्होंने अपना कोई परिचय नहीं दिया। और न यही सूचित किया कि वे किस प्रान्त के निवासी थे । इनके मातापिता कौन थे, उनका गृहस्थ जीवन कैसा रहा? और मुनिजीवन कब धारण किया और उसमें क्या कुछ कार्य किया । इसका कोई उलेल्ख उपलब्ध नहीं होता। आपकी एक मात्र कृति पद्मचरित या बलभद्र चरित्र है। जो संस्कृत भाषा का एक सुन्दर चरित्र ग्रन्थ है। इसमें १२३ पर्व हैं जिनकी श्लोक संख्या बोस हजार के लगभग है ।
ग्रन्थ में वोसवें तोयंकर मुनिसुव्रत के तीर्थ में होने वाले बलभद्र या राम का चरित वर्णित है। मर्यादा ७रुषोत्तम रामचन्द्र इतने अधिक लोक प्रिय हुए हैं कि उनका वर्णन भारतीय साहित्य में ही नहीं किन्तु भारत से बाहर के साहित्य में भी पाया जाता है। और संस्कृत प्राकृत अपभ्रंश आदि प्राचीन भाषाओं में भोर प्रान्तीयभाषाओं में भी उनका जीवन परिचय निबद्ध मिलता है ।
आचार्य रविषेण ने लिखा है कि तीर्थंकर वर्द्धमानने पद्म मुनि का जो चरित कहा था वही इन्द्रभूतिगणधर ने धारिणी पुत्र सुधर्मको कहा, और सुधर्म ने जंबू स्वामी से कहा । और वही प्राचार्य परम्परा से आता हुआ उत्तर वाग्मी और श्रेष्ठ वक्ता कीर्तिधर श्राचार्य को प्राप्त हुआ। उनके लिखे हुए चरित्र को पाकर रविषेण ने यह प्रयत्न किया है।' इतना ही नहीं किन्तु अन्तिम १२३वें पर्व के १६६ वें श्लोक में उन्होंने इसी प्रकार उल्लेख किया
१. वर्द्धमान जिनेन्द्रोक्तः सोऽयमर्थी गणेश्वरम 1 इन्द्रभूति परिप्राप्तः सुधः धारिणी भवम् ॥४१ प्रभवं कमलः कीर्ति ततोऽनुत्तर वाग्मिनम् । लिखतं तस्य सम्प्राप्य रवेयंस्नोऽयमुदगतः ॥४२॥