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________________ अन्तिम केवल जम्बूस्वामी ३३ होगया। वहां जम्बूकुमार और उनकी स्त्रियों की वार्ता हो रही थी। विद्युतचोर बड़ी देर से उनके ग्राख्यानों को सुन रहा था, उसे उसमें रस आने से और जागृति रहने से यह चोरी तो नहीं कर सका, पर वह उनकी बातों में तन्मय हो गया। विद्युतचोर ने भी अनेक दृष्टान्तों और कथानकों द्वारा कुमार को समझाने का यत्न किया, पर विद्युतचोर की वकालत भी उन्हें विषयपाश में न फँसा सकी। उल्टा जम्बूकुमार का प्रभाव विद्युतचोर और उसके साथियों पर पड़ा । भतः विद्युतचोर भी अपने साथियों के साथ चोर कर्म का परित्याग कर दीक्षा लेने के लिये तत्पर हो गया । जम्बूकुमार तो दीक्षा लेने के लिये पहले से ही उत्सुक था। जम्बूकुमार की जिन दीक्षा जम्बूकुमार ने अपने विवाह की इस रात्रि में अपनी उन चार पलियों को बुद्धिबल से जीत लिया । उनकी शृंगारपरक हाव-भाव चेष्टाओं, कथानकों, उपकथानकों श्रादि का जम्बूकुमार पर कोई प्रभाव श्रंकित नहीं हुआ, उन्होंने राग भरी दृष्टि से उनकी ओर झाँका तक भी नहीं। उनकी वैराग्य भरी सौम्य दृष्टि का प्रभाव उन पर पड़ा । विद्य तचोर धौर उसके साथी सब सोचते कि देखो, कुमार पर देवांगनाओं के सदृश प्रत्यन्त सुन्दर इन म युवतियों का और धन वैभव का कोई प्रभाव नहीं है, ऐसी विभूति को छोड़कर यह दीक्षा ले रहा है । हम लोग तो जिंदगी भर पाप कर्म करते रहे, और उसी के लिये यहाँ प्राये थे किन्तु कुमार का जिन-दीक्षा लेने का दृढ़ निश्चय देखकर हमारा विचार बदल गया और हम सब भी दीक्षा लेकर श्रात्म-साधना करेंगे। हमारे इस निश्चय को ग्रब कोई टालने के लिये समर्थ नहीं है। इस प्रकार के विचार विनिमय में ही सब रात्रि चली गयी, और प्रातः काल हो गया । सेठ दास ने प्रातःकाल राजभवन में जाकर सम्राट् से निवेदन किया कि जम्बूकुमार की चारों नवोढ़ा पत्नियाँ भी उसे गृहस्थ के बंधन में न बांध सकीं और वे दीक्षा लेने वन में जा रहे हैं। सम्राट ने कहा – अच्छा उनको जुलूस के रूप में सुधर्म स्वामी के पास ले चलने की व्यवस्था की जाय । जुलूस में दुन्दुभि बाजे बज रहे थे, हाथी, घोड़े, ऊँट, और पैदल जनता सभी उसमें शामिल थे। बीच में एक सजी हुई पालकी में जम्बूकुमार बैठे हुए थे। उनके शरीर पर बहुमूल्य वस्त्राभूषण थे। उनके सिर पर मुकुट बंधा हुआ था, जिसे सम्राट् बिम्बसार ने बांधा था। पालकी को नगर के सम्भ्रांत नागरिक उठाए हुए थे । जनता उत्साह के साथ भगवान महावीर की जय, सुवधर्म स्वामी की जय और जम्बूस्वामी की जय बोल रही थी । जुलूस क्रमश नगर के सभी प्रधान मार्गों से घूमता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था। मार्ग में सभी गवाक्ष और छते नर-नारियों से भर गई । सब ओर से उनके ऊपर पुष्प बरसाये जा रहे थे। जिस समय जुलूस श्रहंदास सेठ के मकान की ओर आया, तब जम्बूकुमार की माता जिनमती मोहवश दोड़ती हुई पालकी के पास श्राई । वह मुख से हा पुत्र ! हा पुत्र ! कहकर एकदम मूच्छित हो गई। शीतोपचार से जब वह होश में आई तो मांसू बहाती हुई गद्गद् हो कहने लगी हे पुत्र ! एक बार तू मुझ अभागिनी माता की श्रोर तो देख यह कहकर वह पुनः मूच्छित हो गईं। अपनी सास को मूच्छित हुआ देख जम्बूकुमार की चारों बहुएँ भी अत्यन्त शोकसन्तप्त होकर रुदन करती हुई बोलींनाथ 1 है कामदेव ! हम सबको अनाथ बनाकर श्राप कहाँ जा रहे हैं ? जिस तरह चन्द्रमा के बिना रात्रि की शोभा नहीं, कमल के विना सरोवर की शोभा नहीं, उसी तरह ग्रापके बिना हमारा जीवन भी निरर्थक है । हे कृपानाथ ! आप प्रसन्न हों और थोड़े समय गृहस्थ अवस्था में रहकर बाद में उसका परित्याग कर दीक्षा ले ले। जम्बूकुमार की पत्नियाँ इस प्रकार कह ही रहीं थी कि चन्दनादि के उपचार से माता जिनमती को दुबारा होश भा गया। वह होश में आकर रो-रोकर जम्बूकुमार से कहने लगी हे पुत्र ! कहाँ तो तेरा केले के पत्ते के समान कोमल शरीर और कहाँ वह असिधारा के समान कठोर जिन दीक्षा ! तपदचरण कितना कठिन है । नग्न शरीर, डांस-मच्छर, भंझावात, वर्षा, ठण्ड, गर्मी, आदि को अनेक असा बाधायें कैसे सहन करेगा ? हे बालक ! तू इस ऊबड़-खाबड़ कठोर भूमि में कैसे शयन करेगा और भुजाओं को
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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