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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
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लटकाए हुए तू किस तरह रात्रि भर कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यान करेगा, और उपसर्ग परिषद की भीषण स्थितियों में अपने को कैसे निश्चल रख सकेगा ।
किन्तु सुदृक संकल्पी जम्बूकुमार माता को रोती-बिलखती देखकर बोले- हे माता ! तू शोक को छोड़कर कायरने का परित्याग कर । तुझें अपने मन में यह सोचना चाहिए कि यह संसार अनित्य और अशरण है । है माता ! मैंने अनेक जन्मों में इन्द्रिय-विषयों के सुख का अनेक वार उपभोग किया और उन्हें जूठन के समान छोड़ा। ऐसे तृप्तकारी विषय सुखों की ओर भला माता ! मैं कैसे जा सकता हूँ । तुझे तो प्रसन्न होना चाहिए कि तेरा पुत्र संसार के बंधनों को काटकर परमार्थ के मार्ग पर अग्रसर हो रहा है।
इस तरह जम्बूकुमार अपनी माता को सम्बोधित कर पालकी में बैठकर आगे बढ़े और राजगृह के सभी मार्गों से घूमकर नगर के बाहर उपवन में पहुँचे ।
उपवन में एक वृक्ष के नीचे मुनियों व परिकर सहित महातपोधन सुधर्म स्वामी बैठे हुए थे । जम्बूकुमार गालकी से उतरकर उनके समीप गए। उन्हें नमस्कार थिया, तीन प्रदक्षिणाएँ दीं। फिर उनके सामने हाथ जोड़कर नतमस्तक हो बड़े श्रादर से खड़े हो यह प्रार्थना की
हे दयासागर | सम्यक् चारित्र के धारक है मुनिपुंगव ! मैं जन्म मरण रूप दुःखों से भरे हुए कुयोनिरूप समुद्र के आवतों में डूब रहा हूँ । कृपा कर आप मेरा उद्धार करें। आप मुझे संसार के दुःखों की विनाशक, कर्मक्षय करने वाली बैगम्बरी दीक्षा प्रदान करें। जिससे में श्रात्म-साधना द्वारा स्वात्म-निधि को प्राप्त कर सकूं ।
सुधर्म स्वामी ने कहा- अच्छा मैं तुझें अभी दीक्षित करता हूं ।
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यह सुनते ही जम्बूकुमार का हृदय कमल खिल उठा, उन्होंने गुरु के सम्मुख अपने शरीर से सभी आभूषण उतार दिये। कुमार ने अपने मुकुट के आगे लटकने वाली माला को इस तरह दूर किया मानों उन्होंने कामदेव के को ही बलपूर्वक दूर किया तो उन्होंने रत्नमयमुकुट को भी इस तरह उतारा मानों उन्होंने मोह रूप राजा को जीत लिया हो। पश्चात् हार आदि प्राभूषणों घोर रत्नमय अंगूठी को भी उतार दिया और अपने शरीर सेयों को इस तरह उतारा मानों चतुर पुरुष ने माया के पटलों को हो फेक दिया हो । समस्त वस्त्राभूषणों का परित्याग कर जम्बूकुमार ने पंचमुट्ठियों से केशों का लोच कर डाला। और 'ओ नमः' मंत्र का उच्चारण कर शुम श्राज्ञा से अट्ठाईस मूल गुणों को धारण किया' – पंचमहाव्रत, पंचसमिति, पंचेंद्रियनिरोध, छह श्रावश्यक, केशलोंच, अचेलक (नग्न) ग्रस्नान, भूशयन, प्रदंतधावन, स्थितिभोजन - खड़े होकर ग्राहार लेना और दिन में एक बार भोजन इन २८ मूल गुणों का पालन करना प्रारम्भ किया ।
जम्बूकुमार ने यह दीक्षा लगभग २५-२६ वर्ष की अवस्था में ग्रहण की होगी। दीक्षा के पश्चात् जम्बू कुमारने आवश्यक कार्यों के अतिरिक्त ध्यान और अध्ययन में अपना उपयोग लगाया और सुधर्मस्वामी के पास समर का अध्ययन किया तथा अनशनादि [अन्तर्वाह्य दोनों तपों का अनुष्ठान किया। आचाराङ्ग के अनुसार मुनिचयों का निर्दोष पालन करते हुए साम्यभाव को प्राप्त करने का उद्यम किया । कषाय-विष का शोषण करते ह • उसे इतना कमजोर एवं अशक्त बना दिया, जिससे वह प्रात्मध्यानादि में बाधक न हो सके। वे मुनि जम्बूकुमार निस्पृह वृत्ति से मुनि धर्म का पालन करते थे । उसमें प्रमाद नहीं आने देते थे; क्योंकि प्रमाद करने वाला साधु दोपस्थापक होता है
१. पंच महल्वाई समिदीओ पंचजिरणवरुहिडा । पंचेदियरोहो छपिय ग्रावास्या लोचो ॥ यच्चेलक मध्हाण खिदिरायण मदतसगं चैव । दिदि भोयणेव भ मूलगुला मढवीसा दु ॥ छेदोवलायगो होदि ।
२. तेसु पमतो समो
- मूलाधार १, २, ३
-प्रत्रवनसार ३-६
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