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________________ आचार्य समन्तभद्र भक्ति कहते हैं। जब तक मानव का अहंकार नहीं मरता तब तक उसकी विकास भूमि तैयार नहीं होती। पहने से यदि कुछ विकास होता भी है तो वह अहंकार पाते हो विनष्ट हो जाता है, कहा भी है -"किया कराया सब गया जब पाया हुंकार'। इस लोकोक्ति के अनुसार वह दूषित हो जाता है। भक्तियोग से जहां अहंकार मरता है वहां विनय का विकास होता है। इसो कारण विकास मार्ग में सबसे प्रथम भक्तियोग को अपनाया गया है। प्राचार्य समतभद्र विकास को प्राप्त शुद्धात्माओं के प्रति कितने विनम्र और उनके गुणों में कितने अनुरक्त थे, यह उनके स्तुति पन्धों से स्पष्ट है। उन्होंने स्वयं स्तुति विद्या में अपने विकास का प्रधान श्रेय भक्तियोग को दिया है। और भगवान जिनेन्द्र के स्तवन को भव-वन को भस्म करने वाली अग्नि बतलाया है। और उनके स्मरण को दुख द्र से पकने वार जोगा लिया। जनके भजन को लोह से पारस मणि के स्पर्श समान कहा है। विद्यमान गुणों की अल्पता का उल्लंघन करके उन्हें बढ़ा चढ़ा कर कहना लोक में स्तुति कही जाती है । किन्तु समन्तभद्राचार्य की स्तुति लोक स्तुति जैसी नहीं है। उसका रूप जिनेद्र के अनन्त गुणों में से कुछ गुणों का अपनी श वत अनुसार प्रांशिक कीर्तन करना है। जिनेद्र के पुण्य गणों का स्मरण एवं कीर्तन प्रात्मा की पाप-परिणति को छुड़ाकर उसे पवित्र करता है और ग्राम विकास में सहायक होता है फिर भी यह कोरा स्तुति ग्रन्थ नहीं है। इसमें स्तुति के बहाने जैनागम का सार एवं तत्वज्ञान कट कट कर भरा हमा है। टीकाकार प्रभाचन्द्र ने-'नि: शेष जिनोक्त धर्म विषयः और 'स्तवोयमसमः' विशेषणों द्वारा इस स्तवन को अद्वितीय बतलाया है। समन्तभद्र स्वामी का यह स्तोत्र ग्रन्थ अपूर्व है। उसमें निहित वस्तु तत्व स्व-पर के विवेक कराने में सक्षम है। - यद्यपि पूजा स्तुति से जिनदेव का कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि वे वीतराग हैं-राग द्वेषादि से रहित हैं। मतः किसी की भक्ति पूजा से वे प्रसन्न नहीं होते, किन्तु सच्चिदानन्दमय होने से वे सदा प्रसन्न स्वरूप है। निन्दा से भी उन्हें कोई प्रयोजन नहीं है। क्योंकि वे वर रहित हैं। तो भी उनके पुण्य गुणों के स्मरण से पाप दूर भाग जाते हैं और पूजक या स्तुति कर्ता की प्रात्मा में पवित्रता का संचार होता है समाचार्य महोदय ने इसे पोर भी स्पष्ट किया है : स्तुति के समय उस स्थान पर स्तुत्य चाहे मौजूद हो या न हो फल की प्राप्ति भी चाहे सीधी होती हो या न हो परन्तु प्रात्म-साधन में तत्पर साधु स्रोता की विवेक के साथ भक्ति भार पूर्वक की गई स्तुति कुशस परिणाम की-पुण्य प्रसाधक पवित्र शुभभावों की-कारण जरूर होती है और वह कुशल परिणाम श्रेय फल का दाता है । जब जगत में स्वाधीनता से श्रेयोमार्ग इतना सुलभ है, तब सर्वदा अमिपूज्य हे नमि-जिन ! ऐसा कौम विहान अथवा विवेकी जन है, जो आपकी स्तुति न करें? अर्थात् अवश्य ही करेगा। स्तुतिः स्तोतुः साधोः कुशलपरिणामाय स तवा, भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः। किवं स्वाधीन्याजगति सुलभ बायस-पथे, स्तुया न त्वा विद्वानसततमभिपुज्यं नमिजिनम् ॥११६ इन चतुर्विशति तीर्थकरों के स्तवनों में गृणकीर्तनादि के साथ कुछ ऐसी बातों का अथवा घटनामों का भी उल्लेख मिलता है जो इतिहास तथा पुराण से सम्बन्ध रखती हैं। और स्वामी समन्तभद्र की लेखनी से प्रसूत होने के " "- - १. "स्वयं परोपदेशमन्तरेण मोक्षमार्गमव बुध्या अनुष्ठाय वाजन्त चतुष्टयतया भवतीति स्वयंभूः ।" स्वयंभूस्तोत्रटीका २. यायात्म्यमुल्लंघगुणोदयाख्या, लोके स्तुति भू रिगुरसीवरेस्ते । भरिणष्ठमप्यंशमशक्नुवन्तो वक्तं जिन ! त्यां किमिव स्तुयाम ।। ---युस्मनु शासन २ ३. न पूज यार्थस्त्वपि वीतराने न निन्दया नाय! विवान्त रे। तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिनं पुनातु चित्त दुरितात्र जनेभ्यः ।। +स्वयंभू स्तोत्र ५०
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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