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________________ कनकनन्दी गोम्मट सार के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने अपने एक गुरु का नाम कनकनन्दी लिखा है। और बतलाया है कि उन्होंने इन्द्रनन्दी के पास सकल सिद्धान्त को सुनकर 'सरवस्थान' की रचना की है यथा घर इंदणंदी गुरुणो पासे सोऊण सयल सिद्धतं । सिरि फणयणंदी गुरुणा सत्तुट्ठाणं समुद्दिढें ।। यह सत्वस्थान ग्रन्थ 'विस्तर सत्व त्रिभंगी के नाम से प्रारा जैन सिद्धान्त भवन में मौजूद है। जिसके नोट मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी ने लिये थे। प्रमीजी ने कनकनन्दी को भी अभयनन्दी का शिष्य बतलाया है जो ठीक नहीं जान पड़ता, क्योंकि ने मिचन्द्र ने स्वयं उन्हें इन्द्रनन्दी से सकल सिद्धान्त का ज्ञान करना लिखा है । इस कारण ये इन्द्रनन्दी के शिष्य थे। नेमिचन्द्राचार्य ने गोम्मटसार कर्मकाण्ड में उक्त सत्वस्थान की ३५८ से ३९७ वें तक ४० गाथाएं दी है। जवकि पारा भवन की प्रति में ४८ या ४६ गाथाएं पाई जाती हैं । गोम्मटसार में वे माठ गाथाए नहीं दी गई। इससे कनकनन्दी का समय भी १०वीं शताब्दी का अन्तिम भाग और ग्यारहवीं का प्रारम्भ हो सकता है । अन्त की गाथा से कनकनन्दी का भी सिद्धान्त चक्रवर्ती होना पाया जाता है। वाविराज वाविराज-द्रमिल या द्रविडसंघ के विद्वान थे। द्रविडसंघस्थ नन्दिसंघ की अरुंगल शाखा के प्राचार्य थे। प्रहंगल किसी स्थान या ग्राम का नाम है उसकी मुनिपरम्परा अगलान्वय नाम से प्रसिद्ध हुई । षट्तकषण्मुख, स्याद्वादविद्यापति और जगदेकमल्ल इनकी उपाधियां हैं। वादिराज श्रीपालदेव के प्रशिष्य, मतिसागर के शिष्य और रूपसिद्धि (शाकटायन व्याकरण की टीका) के कर्ता दयापाल' मुनि के सतीर्थ तथा गुरुभाई थे। वादिराज उनका स्वयं नाम नहीं हैं किन्तु एक पदवी है, किन्तु उसका प्रचार अधिक होने के कारण वह मूल नाम के रूप में प्रचलित हुई जान पड़ती है । मूल नाम कुछ और ही रहा होगा। चौलुक्य नरेश जयसिंह देव की सभा में इनका बड़ा सम्मान था । और प्रख्यात वादियों में इनकी गणना थी। मल्लिषण' प्रशस्ति के अनुसार ये राजा जयसिंह द्वारा पूजित थे (सिंहसमचं पीठ विभवः) और उन्हें महान वादी, १. देखो जन साहित्य और इतिहास प० २६६ २. पुरातन जैन वाक्य सूची की प्रस्ताना ए०७३ ३. हितैषिणां यस्य नृणामुदत्तवाचा निबद्धा हितरूपसिद्धिः। बन्यो दयापाल मुनिः स वाचा सिक्षस्सताम्मूर्दनि यः प्रभावः ।। यस्य श्री मतिमागरो मुरुरसौ चञ्चदशश्चन्द्र सः? श्रीमान्यस्य स वादिराज गणमृत्स ब्रह्मचारी विभोः । एकोऽतीव कृती स एव हि दयापालवती यम्मनस्यास्तामन्य-परिग्रह-ग्रह कथा स्वे विग्रहे विग्रहः ॥ -मल्लि० प्र० जैनले. भा० १० १०८ ४. श्रीमरिंसह महीपते: परिषदि प्रख्यात वादोन्नति स्तक पायतमो पहोदय गिरिः सारस्वतः श्रीनिधिः । शिष्य श्रीमतिसागरस्य विदुषां पत्युस्तपः श्रीभृतां, भतु: सिंहपुरेश्वरो विजयते स्वाद्वादविद्या पतिः ॥ ५ न्याय वि०प्र० ५. पहिलपेण प्रशस्ति शक सं० १०५० (वि० सं० ११८५) में उत्कीर्ण की गई है। २४६
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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