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________________ २५० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास---भाग २ विजेता और कवि प्रगट किया है । जयसिह (प्रथम) दक्षिण के चौलुक्य या सोलंकी वंश के राजा थे। इनके राज्य काल के ३० से अधिक शिलालेख और दान पत्र आदि मिल: हैं। जिनमें पहला लेख शक सं०६३८ का है पौर अन्तिम शक सं०६६४ का। अतः १३८ से १६४ तक इनका राज्य काल निश्चित है। इनके शक सं०६४५ पौषवदी दोइज के एक लेख में उन्हें भोजरूप कमल के लिये चन्द्र । राजेन्द्र चोल (परकेसरीवर्मा) रूप हाथी के लिये सिंह, मालबे को सम्मिलित सेना को पराजित करने वाला मोर घेर-चोल राजाओं को दण्ड देने वाला लिखा है। राज ने पार्श्वनाथ चरित की प्रशस्ति में अपने दादा गुरु श्रीपालदेव को "सिंहपुरैकमुख्य" लिखा है । और न्याय विनिश्चय की प्रशस्ति में अपने आपको भी "सिंहपुरेश्वर' प्रकट किया है। जिससे स्पष्ट है कि यह सिंहपुर के स्वामी थे - इन्हें सिहपुर जागोर में मिला हुआ था। शक सं० १.४७ में उत्कीर्ण सोच के ४६३ नम्बर के शिलालेख में वादिराज की ही शिष्य परम्परा के श्रीपाल विद्यदेव को जिन मन्दिरों के जीर्णोद्धार और ऋषियों को आहार दान के हेतु होयरल राजा विष्णवर्द्धन पोय्सल देव द्वारा 'शल्प' नाम का गांव दान स्वरूप देने का वर्णन है । और ४६५ में जो शक सं० ११२२ में अंकित हुषा, उसमें दर्शन के अध्येता श्रीपास देव के स्वर्गवास हो जाने पर उनके शिष्य वादिराज (द्वितीय) ने 'परवदिमल्ल-जिनालय' बनवाया और उनके पूजन तथा मुनियों के आहारदानार्थ कुछ भूमि का दान दिया । इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि वादिराज की शिष्य परम्परा मठाधीशों की परम्परा थी। जिसमें दान लेने पौर देने की व्यवस्था थी । वे स्वयं दान लेते थे, जिन मन्दिर निर्माण कराते थे, उनका जीर्णोद्वार कराते थे और अन्य मुनियों के प्राहार दानादि की व्यवस्था भी करते थे। वे राज दरवारों में विवाद में विजय प्राप्त करते थे। देवसेन ने दर्शनसार में लिखा है कि द्रविड संघ के मुनि, कच्छ, खेत वसति (मन्दिर) और वाणिज्य से माजी. विका करते थे। तथा शीतल जल से स्नान करते थे । इसी कारण उसमें द्राविड संघ को जैनाभास कहा गया है। बादिराज ने पापवनाथ चरित सिंहचकेश्वर या चोलुक्य चक्रवर्ती जयसिंह देव की राजधानी में रहते हुए शक सं० १४७ की कार्तिक सुदी ३ को बनाया था । जयसिंह देव उस समय राज्य कर रहे थे। उस समय यह राजधानी लक्ष्मी का निवास और सरस्वती देवी की जन्म भूमि थी। यशोधर चरित के तृतीय सर्ग के ५५ ३ पद्य में और चौथे सर्ग के उपान्त्य पद्य में महाराजा जयसिंह का उल्लेख किया है। जिससे यशोधर चरित की रचता भी जयसिंह के समय में हुई है। १.लोक्य दीपिका बाणी वाम्यामेवोदगादिह । जिनराजत एकस्मादेकस्मातादिराजतः ॥५० अरुद्धाम्बर पिन्धु-बिम्ब-रचितौस्सुक्यां सदा यद्यश-पत्र वाक चमरी जराजिस्चयोऽभ्यम् च यत्कर्णयोः , सेव्यःसिह समच्यं-पीठ-विभवः सर्वप्रवादि प्रजा--दत्तोचजयकार-मार-महिमा श्रीवाधिराजो विदाम् ।। -४१ मल्लिषेण प्रशस्ति प० १०८ २. इस साधु परम्परा में वादिराज और श्रीपाल देव नाम के कई विद्वान हो गए हैं। ये पादिराज द्वितीय है, जो गंग नरेश राचमल्ल चतुर्थ पा सत्यवाक्य के गुरु थे। ३. कच्छ खेत्तं वसदि वाणिज्ज कारिऊण जीवतो। म्हंतो सीयलणीरे पावं पजर स संजेथि ।।२।। ४. माकाब्दे नगवाधिरन्धरणने संवत्सरेकोघने, मासे कार्तिकनाम्निांवहिते शुद्ध तृतीयाधिन । सिंहे याति जयादि के वसुमतीजनीक येयं मया, निष्पनि गमिता सती भवतु वः कल्याण निष्पसिये। पा.१० प्र. ५. 'ध्यातवज्जयसिंहतो रणमुखे दीर्घ दो धारिणीम् । ६. 'रणमुख जयसिंहो राज्यलक्ष्मी बभार ।।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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