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________________ आचार्य समन्तभद्र एवं साहसी थे। वे समन्तभद्र की जीवनचर्या से अच्छी तरह परिचित थे, निमित्त ज्ञानी थे, और यह भी जानते थे कि समन्तभद्र अल्पायु नहीं हैं ! और भविष्य में इनसे जनधर्म का विशेष प्रचार एवं प्रभाव होने की संभावना है। ऐसा सोचकर उन्होंने समन्तभद्र को आदेश दिया कि समन्तभद्र ! तुम समाधिमरण के सर्वथा अयोग्य हो। इस वेष को छोड़कर पहले भस्मक व्याधि को शान्त करो। जब व्याधि शान्त हो जाय, तब प्रायरिंचस लेकर मुनि पद ले लेना । समन्तभद्र ! तुम्हारे द्वारा जैनधर्म का अच्छः प्रचार होगा। गुरु आज्ञा से समन्तभद्र ने मुनि जीवन तो छोड़ दिया, किन्तु उसका परित्याग करने में उन्हें जो कष्ट और खेद हुआ वह वचन अगोचर है क्योंकि उन्हें मुनि जोवन से अनुराग हो गया था। वे उसे छोड़ना नहीं चाहते थे अतः उसे छोड़ने में दुःख होना स्वाभाविक है, पर गुरु की प्राज्ञा का उलंघन करना समुचित नहीं है ऐसा सोचकर मुनिवेष का परित्याग कर दिया। मुनिपद छोड़ने के बाद वे शरीर को भस्म से प्राच्छादित कर, और संघ को अभिवादन कर एक वीर योद्धा की सरह 'मणुवकहल्लों से चले गये और काञ्ची (कांजी वरम) पहुंचे। उन्होंने वहां के राजा को पाशीर्वाद पिला रामा द लि . देश में विस्मित हुए, और उसने उन्हें शिव समझकर प्रणाम किया। राजकीय शिवमन्दिर में जो भोग लगता था, उससे उनकी भस्मक व्याधि शान्त हो गई। राजा ने समन्तभद्र से शिवपिण्डो कोणाम करने का आग्रह किया। तब समन्तभद्र ने स्वयंभूस्तोत्र की रचना की, और पाठवे तीर्थकर की स्तुति करते हुए चन्द्रप्रभ भगवान की वंदना को । उसी समय पिण्डो फटकर उसमें से चन्द्रप्रभ भगवान को मूर्ति प्रकट हई।' और उससे राजा भोर प्रजा में जैनधर्म का प्रभाव अंकित हमा। भस्मक ध्याधि के शान्त होने पर समन्तभद्र प्रायश्चित लेकर पुनः मुनि पद में स्थित हो गए। उन्होंने वीर शासन का उद्योत करने के लिए विविध देशों में विहार किया। ल वाद-विजय स्वामी समन्तभद्र के प्रसाधारण गुणों का प्रभाव तथा लोकहित की भावना से धर्मप्रचार के लिए देशाटन का कितना ही इतिवृस ज्ञात होता है । उससे यह भी जान पड़ता है कि वे जहाँ जाते थे, वहाँ के विद्वान उनकी वाद घोषणाओं और उनके तात्विक भाषणों को चुपचाप सुन लेते थे। पर उनका विरोध नहीं करते थे। इससे उनके महान् व्यक्तित्व का कितना ही दिग्दर्शन हो जाता है। जिन स्थानों पर उन्होंने वाद किया, उनका उल्लेख श्रवण बेल्गोल के शिलालेख के निम्न पद्य में पाया जाता है : "पूर्व पाटलिपुत्र मध्य नगरे मेरी मया ताडिता, पश्चाम्मालव-सिन्धु-ठक्का-विषयेकाचीपुरे विशे। प्राप्तोऽहं करहाटक बहुभट वियोस्कटं संकट वावार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूल विकीरितम् ॥" माचार्य समन्तभद्र ने करहाटक पहुंचने से पहले जिन देशों तथा नगरों में वाद के लिए विहार किया था उनमें पाटलिपुत्र, मालवा, सिन्ध, ठक्क (पंजाब) देश, कांबीपुर (कांजीवरम) और विदिशा (भिलसा) ये प्रधान देश तथा जनपद थे, जहां उन्होंने वाद-भेरी बजाई थी। "कांच्या नामाटकोऽहं मलमलिनतनु लम्पिो पापिया, पुण्डोंडे शास्यभिक्षुः पशपुर नगरे मिष्टभोजी परिवाट । वाराणस्थामभूषं शशधरपवलः पाण्डुरागस्तपस्वी, राणम् पस्यास्ति गाविसः स बातु पुरतो म नियवाची।।" .. - १. पामें समंतभा दि मुरिणा, आरिणम्मनु पुष्णमहिषु । विधरंजित राहि कोहि जिणति-मिसिसिर पिशिफोरि॥ -पापारिक प्रचास्ति
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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