________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ समन्तभद्र जहां जिस भेष में पहुंचे उसका उल्लेख इस पञ्च में किया गया है। साथ में यह भी व्यक्त कर दिया है कि मैं जैन निग्रन्थ वादी हैं। हे राजन् ! जिसकी शक्ति हो सामने प्राकर बाद करे।
पाचार्य समन्तभद्र के वचनों की यह खास विशेषता थी कि उनके वचन स्याद्वाद न्याय की तुला में नपेतुले होते थे। चूंकि समन्तभद्र स्वयं परीक्षा प्रधानी थे, प्राचार्य विद्यानन्द ने उन्हें 'परिवेक्षण' परीक्षा नेत्र से सत्रको देखने वाला लिखा है। वे दूसरों को भी परीक्षा प्रधानी बनने का उपदेश देते थे। उनकी वाणी का यह जबर्दस्त प्रभाव था कि कठोर भाषण करने वाले भी उनके समक्ष मदुभाषी बन जाते थे ।
महान व्यक्तित्व
प्राचार्य समन्तभद्र के असाधारण व्यक्तित्व के विषय में पंचायतो मन्दिर दिल्ली के एक जीर्ण-शीर्ण गुच्छक में स्वयम्भू स्तोत्र के अन्त में पाये जाने वाले पद्य में दश विशेषणों का उल्लेख किया गया है :
प्राचार्योऽहं कविरहमहं वादिराट् पण्डितोऽहं। जनतोनिमा मांत्रिभरनांत्रिकोऽहं । राजन्नस्यां जलधिवलया मेखलायामिलायाम् ।
प्राशासिद्धिः किमिति बहना सिद्ध सारस्वतोऽहम् ।। इस पद्य के सभी विशेषण महत्वपूर्ण हैं। किन्तु इनमें प्राज्ञासिद्ध पौर सिद्ध सारस्वत ये दो विशेषण समन्तभद्र के असाधारण व्यक्तित्व के द्योतक हैं । वे स्वयं राजा को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि-हे राजन् ! मैं इस समुद्र बलया पृथ्वी पर माज्ञा सिद्ध है-जो प्रादेश देता है वही होता है। और अधिक क्या कहूं मैं सिद्ध सारस्वत हूँ-सरस्वती मुझे सिद्ध है । सरस्वती की सिद्धि में ही वादशक्ति का रहस्य सन्निहित है।
गुण-गौरव
स्वामी समन्तभद्र को प्राद्य स्तूतिकार होने का गौरव भी प्राप्त है। श्वेताम्बरीय प्राचार्य मलयगिरि ने 'आवश्यक सूत्र' की टीका में 'प्राद्यस्तुतिकारोऽप्याह-वाक्य के साथ स्वयंभूस्तोत्रका 'नयास्तव स्यात्पदसत्यलाञ्छन (ज्छिता) इमे' नाम का श्लोक उद्धृत किया है।
प्राचार्य समन्तभद्र के सम्बन्ध में उत्तरवर्ती प्राचार्यों, कवियों, विद्वानों ने और शिलालेखों में उनके यश का खुला गान किया गया है।।
प्राचार्य जिनसेन ने उन्हें कवियों को उत्पन्न करने वाला विधाता (ब्रह्मा) बतलाया है, और लिखा है कि उनके दजपातरूपी वचन से कुमतिरूपी पर्वत खण्ड-खण्ड हो गये थे ।'
कवि वादीभसिंह सूरि ने समन्तभद्र मुनीश्वर का जयघोष करते हुए उन्हें सरस्वती की स्वच्छन्द विहार भूमि बतलाया है । और लिखा है कि उनके वचनरूपी वनिपात से प्रतिपक्षी सिद्धान्तरूप पर्वतों की चोटियां खण्ड-खण्ड हो गई थी। समन्तभद्र के पागे प्रतिपक्षी सिद्धान्तों का कोई गौरव नहीं रह गया था । आचार्य जिमसेन ने समन्तभद्र के वचनों को वीर भगवान के वचनों के समान बतलाया है।
१. नमः समन्तभद्राय महते कवि वेधसे ।
पद्वचो वचपातेन निभिन्ना कुमलाद्रयः ।। २. सरस्वती-स्वैर-विहारभूमयः समन्तभद्र प्रमुखा मुनीश्वराः । जयन्ति वाग्वज-निपात-पारित-प्रतीप राधान्त महीध्रकोटय: ।।
-गद्यचिन्तामणि ३. मनः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विज भते ।।।
---हरिवंश पुराण