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________________ 1 19 माधनन्दि के वाद्यविशेष के नाद से बड़ी भारी पूजा की। उसे देख कर धरसेन भट्टारक ने उनका भूतबलि नाम रक्खा | और जिनको भूतों ने पूजा को और अस्त व्यस्त दन्तपंक्ति को दूर कर उनके दांत समान कर दिये, अतः धरसेन भट्टारक ने दूसरे का नाम गुष्पदन्त रक्खा । पश्चात् दूसरे दिन वहां से उन दोनों ने गुरु की ग्राज्ञा से चल कर अंकलेश्वर (गुजरात) में वर्षाकाल बिताया। धरसेनाचार्य ने दोनों शिष्यों को इस कारण जल्दी वापिस भेज दिया, जिससे उन्हें गुरु के दिवंगत होने पर दुःख न हो। कुछ समय पश्चात् उन्होंने साम्य भाव से शरीर का परित्याग कर दिया। आचार्य धरसेन की एकमात्र कृति 'योनि पाहुड' है, जिसमें मन्त्र-तन्त्रादि शक्तियों का वर्णन है । यह ग्रन्थ मेरे देखने में नहीं आया। कहा जाता है कि वह रिसर्च इन्स्टिट्यूट पूना के शास्त्र भण्डार में मौजूद है । माघनन्दि सिद्धान्ती - नन्दि संघ को पट्टावली में मबली के बाद माघनन्दि का उल्लेख किया है और उनका काल २१ वर्ष बतलाया है। जम्बूद्वीप पण्णत्ती के कर्ता पद्मनन्दी ने माघनन्दि का उल्लेख करते हुए बतलाया है कि वे राग-द्वेष और मोह से रहित, श्रुतसागर के पारगामी, मतिप्रगल्भ, तप और संयम से सम्पन्न, लोक में प्रसिद्ध थे । श्रुतसागर पारगामी पद से उन माघनन्दि का उल्लेख ज्ञात होता है जो सिद्धान्तवेदी थे। इनके सम्बन्ध में एक कथानक भी प्रचलित है। कहा जाता है कि माघनन्दि मुनि एक बार चर्या के लिये नगर में गए थे। वहाँ एक कुम्हार की कन्या ने इनसे प्रेम प्रगट किया और वे उसी के साथ रहने लगे। कालान्तर में एक बार संघ में किसी सैद्धान्तिक विषय पर मतभेद उपस्थित हुआ और जब किसी से उसका समाधान नहीं हो सका, तब संघनायक ने आज्ञा दी कि इसका समाधान माघनन्दि के पास जाकर किया जाय । अतएव साधु माघनन्दि के पास पहुँचे और उनसे ज्ञान की व्यवस्था मांगी। तब माघनन्दि ने पूछा 'क्या संघ मुझे अब भी यह सत्कार देता है ? मुनियों ने उत्तर दिया- आपके श्रुतज्ञान का सदैव श्रादर होगा ।' यह सुनकर माघनन्दि को पुनः वैराग्य हो गया और वे अपने सुरक्षित रखे हुए पीछी कमंडलु लेकर संघ में मा मिले और प्रायश्चित किया । माधनन्दि ने अपने कुम्हार जीवन के समय कच्चे घड़ों पर थाप देते समय गाते हुए एक ऐतिहासिक स्तुति बनाई थी, जो अनेकान्त में प्रकाशित हो चुकी है। पर वह इन्हीं माधनन्दि की कृति है, इसके जानने का कोई प्रामाणिक साधन देखने में नहीं भाया । शिला लेख नं० १२६ में बिना किसी गुरु शिष्य सम्बन्ध के माघनन्दि को प्रसिद्ध सिद्धान्तवेदी कहा है । यथा नमो नम्रजनानन्वस्यन्विने माघनन्दिने । जगप्रसिद्ध सिद्धान्तवेदिने विप्रमेदिने ॥ माघनन्दि नाम के और भी सैद्धान्तिक विद्वान हुए हैं। पर वे इनसे पश्चाद्वर्ती हैं, जिनका परिचय प्रागे दिया जायेगा । प्रस्तुत माघनन्दि के शिष्य 'जिनचन्द्र' बतलाए गए हैं। पर उनका कोई परिचय उपलब्ध नहीं होता । पुष्पदन्त और भूतबली- ये दोनों महेंदुली के शिष्य थे। दक्षिण भारत के प्रान्ध्र देश के वेणातट नगर प्रतिक्रमण के समय एक बड़ा मुनि सम्मेलन हुआ था। उस समय सौराष्ट्र देश के गिरिनगर ( वर्तमान जूनागढ़) हा निवासी मात्रायें घरसेन ने जो ममायणी पूर्व के पंचम वस्तु गत चतुर्थ महाकर्म प्रकृति प्राभूत के में युग में स्थित १. पुरणो तद्दिवसे चैव पेसिदा संतो 'गुरु-जवण मलपरिज्ज' इविचितिणामयेहि अंकुलेसर वरिसाकाली कमी। जोगे समानीय जिवालिये बहूण पुप्फयंताइरियो बगवास विसयं गयो । भूदवलि-भारमो वि दमिलदेस गयो । २. जोणि पाहुडे भणिद-मंत संत सतीष पोषणलाणुभागी लि येतो' -- अनेकान्त वर्ष २ जुलाई ३. यः पुष्पदन्तेन च भूतस्यास्येनावविष्यद्वितीयेन रेजे। फल प्रदानाय जगज्जननी प्राप्तोऽङ्कुराभ्यामिव कल्पभूजः ॥ — जैन विलालेख सं० भा० १ लेल १०५
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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