________________
१५वीं, १५वी. १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य भट्टारक, और कवि
नागौर से कविवर वैराट आये। और वे वहाँ के पार्श्वनाथ जिनमन्दिर में रहने लगे। वह नगर उन्हें पति प्रिय हुमा । वहां लाटी संहिता के निर्माण करते समय उनके दिल में एक ग्रन्थ बनाने का उत्साह जागत हपा।
पंचाध्यायी-कवि ने इस ग्रन्थ को पाँच अध्यायों में लिखने की प्रतिज्ञा की थी। वे उसका डेढ अध्याय ही बना सके खेद है। कि बीच में ही प्रायू का क्षय होने से वे उसे पूरा नहीं कर सके । यह समाज का ग्यि ही है। कवि ने आचार्य कुन्द कुन्द और अमृतचन्द्राचार्य के ग्रन्थों का दोहन करके इस ग्रन्थ की रचना की है। अन्य में द्रव्य सामान्य का स्वरूप अनेकान्त दृष्टि से प्रतिपादित किया गया है। और द्रव्य के गुण पर्याय तथा उत्पाद व्यय प्रोग्य का अच्छा विचार किया है। द्रव्य क्षेत्र काल-भाव की अपेक्षा उसके स्वरूप का निर्वाध चिन्तन किया है। नयों के भेद और उनका स्वरूप, निश्चय नय और व्यवहार नय का स्पष्ट कथन किया है। खासकर सम्यग्दर्शन के विवेचन में जो विशेषता दृष्टिगोचर होती है वह कदि के अनुभव को घोतक है। वास्तव में कवि ने जिस विषय का स्पर्श किया उसका सांगोपांग विवेचन स्वच्छ दर्पण के समान खोलकर स्पष्ट रख दिया है । ग्रन्थराज के कथन को विशेषता अपूर्व और अद्भुत है। उसमें प्रबचनसार का सार जो समाया हुआ है, जो दोनों अन्यों की तुलना से स्पष्ट है। उस समय कवि का स्वानुभव बढ़ा हुया था। यदि ग्रन्थ पूरा लिखा जाता तो वह एक पूर्ण मौलिक कृति होती। ग्रन्थ को कथन शैली गहन और भापा प्रौढ है। अन्य अध्ययन और मनन करने के योग्य है । वर्णी ग्रन्थमाला से इसका प्रकाशन हुआ है।
कवि का समय १७ वीं शताब्दी है।
कवि शाह ठाकुर वंश परिचय-कवि की जाति खंडेलवाल और गोत्र लुहाऽया या लुहाडिया था। यह वंश राज्यमान्य रहा है । शाह ठाकुर साह सील्हा के प्रपुत्र और साहु खेता के पुत्र थे, जो देव-शास्त्र-गुरु के भक्त और विद्याविनोदो ये. उनका विद्वानों से विशेष प्रेम था । कवि संगीत शास्त्र, छन्द अलंकार मादि में निपुण थे और कविता करने में उन्हें आनन्द प्राता था। उनकी पत्नी यति मोर पायकों का पोषण करने में सावधान थी, उसका नाम 'रमाई था। यावक जन उसको कोति का गान किया करते थे। उसके दो पुत्र थे गोविन्ददास और धर्मदास। इनके भी पुत्रादिक थे। इस तरह शाहठाकुर का परिवार सम्पन्न परिवार था। इनमें धर्मदास विशेष धर्मज्ञ और सम्पूर्ण कुटुम्ब का भार वहन करने वाला, विनयी और गुरु भक्त था। महापुराण कलिका की प्रशस्ति में उनका विस्तत परिचय दिया हुआ है।
गुरु परम्परा-मूल संघ, सरस्वती गच्छ के भट्टारक प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दी, शुभचन्द्र, जिनचन्द्र, प्रभाचन्द्र, चन्द्रकोति और विशानीति के शिष्य थे। इनके प्रगुरु भ० प्रभाचन्द्र जिनचन्द्र के पट्टधर थे, जो षट तक में निपण तथा कर्कश वाग्गिरा के द्वारा अनेक कवियों के विजेता थे, और जिनका पट्टाभिषेक सं०१५७१ में सम्मेद शिखर पर सुवर्ण कलशों से किया गया था। इन्हीं प्रभाचन्द्र के पट्टधर भ० चन्द्रकीतिये। इनका पदाभिषेक भी उक्त सम्मेद शिखर पर हुआ था। लक्ष्मणगढ़ के दिगम्बर जैन मन्दिर में एक पाषाण मूर्ति है जिसे सं० १९६० में खंडेल वंश के शाह छाजू के पुत्र तारण मत के पुन गूजर ने मूलसव नशाम्नाय के भट्टारक चन्द्रकीति द्वारा प्रति
१. पट्टावनी के ३२,३३,३४ पद्यों में प्रभाचन्द्र के सम्मेद शिखर पर होने वाले पट्टाभिषेक का वर्णन है। उसके बाद निम्न ३५ वें पद्य में चन्द्रकीति के पट्टाभिषेक का कथन किया गया है। श्री मलप्रमाचन्द्र गणीन्द्र पट्ट भट्टारक श्री मुनि चन्द्रकीति:संस्नापितो योऽचनिनाथवृन्दः सम्मेद नाम्नीह गिरीन्द्र मूनि ॥३५ प्रस्तुत प्रभाचन्द्र चित्तौड़ की गद्दी के भट्टारक थे, और चन्द्रकीति का पट्टाभिषेक १६२२ में सम्मेद शिखर पर हुआ था। इनकी जाति खंडेलवाल और गोत्र गोपा था। इस पट्टावसी में विशालकीति का उल्लेस नहीं है।