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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
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प्रसिद्ध था। इसी मन्दिर में बैठ कर कवि ने इस ग्रन्थ की रचना विक्रम संवत् १६४१ में श्राश्विन शुक्ला दशमी रविवार के दिन बनाकर समाप्त की है, जैसा कि उसकी प्रशस्ति के निम्न पद्यों से प्रकट है :--
श्रीनृपविक्रमावित्यराज्ये परिणते सति सहैकचत्वारिंशविरदानां शतषोडश ॥ २ तत्राप्यऽश्विन मासे सितपक्षे शुभान्विते ।
anant दाशरथेश्च शोभने रविवासरे ॥३
ग्रन्थ के प्रथम सर्ग में कथा मुख वर्णन है। और शेष छह सर्गों में ग्रन्थ कार ने आठ मूलगुण, सात व्यसन, सम्यग्दर्शन तथा श्रावक के १२ व्रतों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। सम्यग्दर्शन का वर्णन करने के लिए दो सर्ग और अहिंसाणुव्रत के लिए एक सर्ग की स्वतंत्र रचना की गई है।
छन्दो विधा - इस ग्रन्थ की २८ पत्रात्मक एक मात्र प्रति दिल्ली के पंचायती मन्दिर के शास्त्र भण्डार में मोजूद है, जो बहुत ही जोर्ण-शीर्ण दशा में हैं। और जिसकी श्लोक संख्या ५५० के लगभग है। इसमें गुरु और लघु अक्षरों का स्वरूप बतलाते हुए लिखा है जो दीर्घ है, जिसके पर भाग में संयुक्त वर्ण है, जो विन्दु (अनुस्वार- विसर्ग या वक्र (s) है। जो एक मात्रिक है यह लघु होता
से
युक्त है-पास है जह है
है ओर उसका रूप शब्द वक्रता से रहित सरल (1) है !
वह संजुत्तवशे विप्रो थालियो (?) विचरते । स गुरु बकं मत्तो प्रणो लहु होइ शुद्ध एकप्रलो
इसके आगे छन्द शास्त्र के नियम - उपनियमों तथा उनके अपवादों आदि का वर्णन किया है। इस पिंगल ग्रन्थ में प्राकृत संस्कृत अपभ्रंश और हिन्दी इन चार भाषाओं के पयों का प्रयोग किया गया है। जिनमें प्राकृत और अपभ्रंश भाषा की प्रधानता है उनमें छन्दों के नियम, लक्षण और उदाहरण दिये हैं। संस्कृत भाषा में भी नियम और उदाहरण पाये जाते हैं। और हिन्दी में भी कुछ उदाहरण मिलते हैं। इससे कवि की रचना चातुर्य और काव्य प्रवृति का परिचय मिलता है ।
छन्दो विद्या के निदर्शक इस पिंगल ग्रन्थ की रचना भारमल्ल के लिये की गई है। राजा भारमल्ल का कुल श्रीमाल और गोत्र शंक्याण था । उनके पिता का नाम देवदत्त था, नागौर के निवासी थे। उस समय नागौर में तपागच्छ के साधु चन्द्रकीर्ति पट्ट पर स्थित थे। भारमल्ल उन्हीं की श्राम्नाय के सम्पत्तिशाली वणिक
भारमल के पूर्वज 'रंकाराउ' के प्रथम राजपूत थे । पुनः श्रीमाल और श्रीपुर पट्टन के निवासी थे। फिर आबू में गुरु के उपदेश से श्रावक धर्म धारक हुए थे, उन्हीं की वंश परम्परा में भारमल्ल हुए थे ।
पढमं भूपालं पुणु सिरिभालं सिरिपुर पट्टण वासु, पुणु श्राबू देसि गुरु उवएसि सावय धम्मणिवासु । घण धम्महणिलयं संघह तिलयं रंकाराऊ सरिदु,
ता वंश परंवर धम्मधुरंधर भारमल्ल गरिषु ।। ११६ ( मरहट्टा ) भारमल्ल के दो पुत्र थे - इन्द्रराज और अजयराज ।
इन्द्रराज इन्द्रावतार जस नंबनु दिट,
अजयराज राजाधिराज सब कञ्ज गरिट्ठ ।
स्वामी दास निवास लछि बहू साहि समाणं |
सोयं भारमल्ल हेम-य-कुञ्जर-वानं ।। १३१ (रोडक)
भारमल्ल कोट्याधीश थे, सांभर झील और अनेक भू-पर्वतों की खानों के अधिपति थे। संभवतः टकसाल भी आपके हाथों में थी । आपके भण्डार में पचास करोड़ सोने का टक्का (अशर्फियाँ) मौजूद थीं। जहाँ आप धनी थे वहाँ दानी भी थे। बादशाह अकबर आपका सम्मान करता था । कवि ने इनका अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया है। ग्रन्थ में रचना काल नहीं दिया। यह रचना भारमल्ल को प्रसन्न करने को लिखी गई है।