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________________ १६८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ भट्टारक के शिष्य सर्वनन्दि को पेने कडंग ( Pannekadonga) के सिद्धान्त सत्यवाक्य जिन मन्दिर के लिये दिये थे । जैन लेख सं० भा. २ पृ. १५४ कूविलाचार्य मह यापनीय नन्दि संघ पुन्नाग वृक्ष मूलगणशास्त्रा के विद्वान थे। जो व्रत, समिति, गुप्ति में दृढ़ थे और मुनिवृन्दों के द्वारा वंदित थे | इनके शिष्य विजयी थे, और विकदि के शिष्य थे। शक मं० ७२५ सन् ८०३ (वि० सं० ८००) के राजप्रभूत वर्ण ने (गोविन्द तृतीय ने ) जब वे मयूर खण्डी के अपने विजयी विश्राम स्थल में ठहरे हुए थे। चाकिराज की प्रार्थना से 'जालमंगल' नाम का गांव मुनि कीर्ति को शिलाग्राम में स्थित जिनेन्द्र भवन के लिये दिया था । देखो, जैन लेख सं० भा. २ नं० १० २३९ वाह कवि का मूल नाम नहीं है किन्तु एक उपाधि है, जो वादियों के विजेता होने के कारण उन्हें कारण ही उन्हें वादीभ सिंह कहा जाने लगा। मूल नाम कुछ और ही होना चाहिये । वादी सिंह का स्मरण जिनसेनाचार्य ( ई. ८३८) ने अपने आदिपुराण में किया है और उन्हें उत्कृष्ट कोटि का कवि, वाग्मी और गमक बतलाया है यथा प्राप्त हुई थी । उपाधि 1 कवित्वस्य परासीमा वाग्मितस्य परं पदम् । reeteer पर्यन्तो वाविसिहोर्व्यते न केः ॥ पार्श्वनाथ चरित के कर्ता वादिराजसूरि ( ई० १०२५) ने भी वादिसिंह का उल्लेख किया है और उन्हें स्याद्वाद की गर्जना करने वाला तथा दिग्नाग और धर्मकीर्ति के अभिमान को चूर-चूर करने वाला बतलाया है । स्याद्वाव गिरिमाश्रित्य बाविसिहोस्य गजिते । fasनागस्य मदध्वंसे कीर्तिभंगों न दुर्घटः ॥ इन उल्लेखों से वादीभसिंह एक प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान ज्ञात होते हैं । उनकी स्याद्वादसिद्धि उनके दार्श निक होने को पुष्ट करती है । पर श्रादिपुराणकार ने उन्हें कवि और वाग्मी भी बतलाया है। इससे उनकी कोई काव्य कृति भी होनी चाहिये । गद्य चिन्तामणि के प्रशस्ति पद्य में उन्होंने अपने गुरु का नाम पुष्पसेन बतलाया है, और लिखा है कि उनकी शक्ति से ही मेरे जैसा स्वभाव से मूढ बुद्धि मनुष्य वादीभसिंह, श्रेष्ठ मुनिपने को प्राप्त हो सका । श्री पुष्पसेन मुनि नाय इति प्रतीतो, दिव्यो मनुहं वि सवा मम संविध्यात । छविततः प्रकृति मूक्ष्मतिर्जनोऽपि वदर्भासह मुनिपुङ्गवतामुपैति । महिलषेण प्रशस्ति में मुनि पुष्पसेन को अकलंक का सधर्मा गुरुभाई लिखा है, ' और उसी में वादीभित उपाधि से युक्त एक याचार्य श्रजितसेन का भी उल्लेख किया है । १. श्री पुष्प मुनिरेव पदमहिम्नो देवः स यस्य समभूत स महान सधर्मा | श्री विभ्रम भवनं पद्ममेव पुष्येषु मिश्रमिह यस्य सहस्रधामा || २. सकलभुवनपालानामूर्भावबद्धस्फुरित मुकुटचूडालीढपादारविन्दः । यदवदखिलवादी भेन्द्रकुम्भप्रभेदी गणभूद्रजितसेनो भातिवादीभसिंह, ।। - मल्लिदेश प्रशस्ति -- शिलालेख ५४, पद्य ५७
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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