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________________ ૨૪ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ चान्द्र कातंत्र जनेन्द्र शब्दानुशासनं पाणिनीय मत्तेन्द्र नरेन्द्रसेन सुनीन्द्रकेऽकाक्षर पेरंगिषु मोगो । यह नरेन्द्रसेन व्याकरण शास्त्र के साथ न्याय (दर्शन) शास्त्र और काव्य शास्त्र के भी विद्वान थे। इसी से इनके शिष्य नयसन ने अपने कन्नड़ ग्रन्थ धर्मामृत में अपने गुरु नरेन्द्रमेन का गुणगान करते हुए शास्त्रज्ञान के समुद्र और विद्यचक्रंदर बतलाया है । यथा 'तवाराशि नरेन्द्रसेनमुनि विद्यचक्रेश्वरम् । नरेन्द्रसेन ने अपने शिष्य नयसेन को व्याकरण और न्याय शास्त्र में निष्णात बनाया था । न्याय व्याकरण भोर काव्य शास्त्र में निपुण विद्वानों को 'विद्य' की उपाधि से अलंकृत किया जाता था। नयसेन ने अपने धर्मभृत का समाप्तिकाल अक्षर संख्या में प्रकट किया है- "गिरी शिखों मार्ग शशी संख्यो लावगमोदित सुसिरे शक काल मुन्नतिय नन्दन वत्सरदोल"। यहां गिरि शब्द का संकेतार्थ सात होने से शक बर्ष १०३७ होने पर भी उन संवत्सर शक वर्ष १०३४ में आने से गिरि शब्द का संकेतार्थ ग्रहण किया गया है। इस का रचनाकाल शर्क वर्ष २०३४ सन् १९५२ निश्चित है। इससे नरेन्द्रसेनका समय २५ वर्ष पूर्व सन् १०८७ होना चाहिये। पी० वी० देसाई ने भी इन नरेन्द्रसेन द्वितीय का समय सन् १०८० बतलाया है । नरेन्द्रसेन को एकमात्रकृति प्रमाण प्रमेय कलिका' है। यह न्याय विषयक एक लघु सुन्दर कृति है । जो न्याय के अभ्यासियों के लिये बहुत उपयोगी है। इसमें प्रमाण और प्रमेय इन दो विषयों पर सरल संक्षिप्त श्रोर विशद रूप से चिन्तन किया गया है। भागा गेली सरल एवं प्रवाह पूर्ण है। रचना में कहीं कहीं मुहावरों, न्याय वाक्यों और विशेष पदों का प्रयोग किया गया है। आचार्य नरेन्द्रसेन ने इस ग्रन्थ में प्रभाचन्द्र को पद्धतिका अनुसरण किया है । ग्रन्थ में रचना काल नहीं है, श्रीर न उनके शिष्य नयन ने ही उनकी कृति का उल्लेख ही किया है । उनकी अन्य कृतियां भी अन्वेषणीय हैं। इनका समय सन् १०६० से सन् १०८७ ई० होना संभव है । जिनसेन जिनमेन मूलसंघ सेनगण के विद्वान थे और कनकसेन द्वितीयके जो जिनागम के वेदी और गुरुतर संसार कानन के उच्छेदक और कर्मेन्धन-दन में पट्टशिष्य थे। जिनसेन गुनीन्द्र, मद रहित सकल शिष्यों में प्रधान, काम के विनाशक और संसार समुद्र से तारने के लिये नौका के समान थे। जयाकि नागकुमार चरित्र प्रशस्ति के निम्न पद्म से प्रकट है गतमयजनितस्य महामुनेः प्रथितवान जिनसेन मुनीश्वरः । सकल शिष्यवरो हतमन्मयो भवमहोदधितारतरंडकः ॥ जिनका शरीर चारित्र से भूषित था। परिग्रह राहत - निसंग, दुइ कामदेव के विनाशक और भव्यरूप कमलों को विकसित करने के लिये सूर्य के समान थे। जैसा कि भैरव पद्मवतों कल की प्रशस्ति से स्पष्ट हैचारित्र भूषिताङ्गी निःसगो मथित दुर्जयानंग: 1 तच्छिष्यो जिनसेनो बभूव भव्याब्जधर्मा शुः ५६ कनकसेन द्वितीय का समय ६६० ईस्वी है । और जिनसेन का समय ईस्वी सन् २०२० है | नयसेन नयन --- मूल संघ-सेनात्वय-चन्द्रवाट अन्वय के विद्वान थे और विद्यचकवतों नरेन्द्र सूरि के शिष्य थे । नरेन्द्रसेन अपने समय के बहुत प्रभावशाली विद्वान हुए हैं। चालुक्य वंशीय भुवनं कमल्ल (सन् १०६६ से १०७६ १२३ १०४१ २ दिन गाउदा १३६
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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