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तक उनकी सेवा करते थे। नरेन्द्रगन व्याकरण और न्यायशास्त्र के बड़े विद्वान थे ओर विविध उपाधियों से अलंकृत थे। ये महिलण के गुरु जिनसेन के सधर्मा थे इन्होंने नमगन को पढ़ाकर अच्छा विज्ञान बनाया था । इसी से नयसेन ने उनका बड़े ग्रादर के साथ स्मरण किया है। मूलगुद के शिलालेख (सन् १०५३) में नरेन्द्र सेन के शिष्य नयसेन को सभी व्याकरण ग्रन्थोंका ज्ञाता विद्वान बनाया है
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शासन दल पाणिनी, पाणिनीय दोल चन्द्र चान्द्रावोलतज्जनं ॥ द्रन जैनेन्द्र दोला कुमार ने गंड कौमार बोलान्वररें -.
तेने पोर्तन्नधसेन पंडितं रोलन्यय्वधिवितोर्वीयोल ॥
वचनः - इत समस्त शब्द शास्त्र पारगानयसेन पंडित देवर
नयसेन को बनाई हुई दो रचनाएं उपलब्ध हैं । कर्णाट भाषा का व्याकरण और दूसरा ग्रन्थ धर्मामृत । इसमें ९४ प्रवास हैं। इन ग्रावासों में कवि ने सम्यग्दर्शन और उसके आठ अंग और पाच व्रतों की कथाओं के माध्यम से श्रावका चार का विस्तृत कथन किया है। इस ग्रन्थ की भाषा कड़ी है, जो बहुत ही सुन्दर, ललित और शुद्ध है। इसी से कवि की गणना कन्नड़ साहित्य के आकाश में देदीप्यमान ग्रन्थकारों में की गई है, और सौभाग्य से प्रायः वे सब कवि जंन हैं। पम्प, रत्न, पोन्न, साल्व, रत्नाकर, अरगल और बन्धुवर्गी मादि सब कवि जैनधर्म के प्रेमी और श्रद्धालु ये । कन्नड साहित्य के भण्डार को इन्होंने समूद्ध किया है। इस समृद्धि में नयसेन का बहुत बड़ा भाग रहा । इनके ग्रन्थ में भाषा का सौष्ठव और उपमादि अलंकारों की छटा पद-पदपर देखने को मिलती है । भाषा में प्रवाह और श्रांज है । कथानक की शैली सरल और सजीव तथा रोचक है। यह सजीवता ही लेखक की अपनी विशेषता है ।
ग्रन्थ में कर्ता ने धर्मामृत के आदि में अपने से पूर्ववतों निम्न विद्वानों का उल्लेख किया है जिनकी संख्या पचपन ( ५५ ) है - 'भर्हदुबली, गुणघर, श्रार्यमक्षु नागहस्ति, यतिवृषभ, घरसेनाचार्य, भूतबली, पुष्पदन्त, कुन्दकुन्दाचार्य, जटासिंहनन्दि, कूचि भट्टारक, स्वामि समन्तभद्र, कवि, परमेष्ठी, पूज्यपाद, विद्यानन्द, मनन्तवीर्य, सिद्धसेन श्रुतकीति, प्रभाचन्द्र, बप्पदेव एलाचार्य, वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, अजितसेन मुनि, सोमदेव पण्डित, त्रिभुवनदेव, नरेन्द्रसेन, नयसेन, शुभचन्द्र, सिद्धान्तदेव, रामनन्दि' सैद्धान्तिक (माघनन्दी) गुणचन्द्र पण्डित, विद्य नरेन्द्रसेन, वासुपूज्य सिद्धान्ती वचनन्दी संद्धान्तिक, मेधचन्द्र सैद्धान्तिक, माघनन्दी सैद्धान्तिक, प्रभाचन्द्र सैद्धान्तिक, अर्हनन्दी भट्टारक, श्रुतकीर्ति, रामसिंह, वासुपूज्य भट्टारक, चारुसेन, कुत्रकुटासन मलधारि, मेघचन्द्र विद्य रामसेनवती, कनकनन्दी सुनीन्द्र, अकलंक, श्रसगकवि, पोन्नकवि, पम्पकवि, गजांकुशकवि, गुर्णवर्मा, रत्नकवि ।
विनयसेन ने साधारण कथा को इतने सुन्दर ढंग से चित्रित किया है कि वह पढ़ते समय पाठक के मानस पर अपना प्रभाव अंकित किये बिना नहीं रहती । यहीं कारण है कि पश्चाद्वर्ती कवियों ने इसे सुकवि निकर पिक माकन्द, कति जनमनः सरोराजहंस' आदि विशेषणों से भूषित किया है। ग्रन्थकर्ता ने अपने को 'मूलगुन्द' का निवासो बतलाया है | जो एक तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध है। मूलगुन्द धारवाड जिले की गदग तहसील से १२ मील दक्षिण पश्चिम की ओर है। यही के जैन मन्दिर में बंटकर कवि ने कनड़ी भाषा में धर्मामृत की रचना की है। जो २४ अधिकारों में विभक्त है । यहाँ इस समय चार जैन मन्दिर हैं। यहां के मन्दिर में रहते हुए मल्लिषेणाचार्य ने श्रनेक ग्रन्थों की रचना की है और मैं जगत पूज्य सुकवि निकर पिकमाकन्द्र हो गया हूँ लिखा है । कवि ने ग्रंथ की रचना का समय अक्षरों में दिया है। उसमें गिरी शब्द का संकेतार्थ सात होते हुए भी 'नन्दन संवत्सर शक वर्ष १०३४ में
१ मूल ग्रंथ के टिप्पण में रामनन्दि का नाम भावनन्दि दिया है। २ मूल गुददोलिदु महोज्ज्वल धर्मामृत मनतमिद भध्या ।
बलिगिरि एवं परिश्रीत पूज्यं सुषवि निकर पिकमाकन्दं ॥
- धर्मात १४-१६८
३ 'गिरिशिखी वायुमार्गाशी गंभ्य बोला वगमो दिवति सुसिरे शक काल मुन्नतिय नन्दन वत्सर दोल"
- धर्मात प्रशस्ति