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________________ ३३० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-मान मालवपति मज नरेश द्वारा पूजित थे और जो गुणाकरसेनसरि के शिष्य थे। दसरे महासेन 'सुलोचना चरित' के कर्ता हैं जिनका उल्लेख 'हरिवंश पुराण' में पाया जाता है। प्रस्तुत महासेन इनसे भिन्न जान पड़ते हैं। यह कोई तीसरे ही महासेन हैं। दृत्तिकार ने जहाँ वीरनन्दि को नित्य नमस्कार करने की रात लिखी है, और बतलाया है कि जिस मुमुक्ष मुनि के सदा व्यवहार और निश्चय प्रतिक्रमण विद्यमान हैं। और जिसके रंच मात्र भी प्रतिक्रमण नहीं हैं ऐसे संयम रूपी आभूषण के धारक मुनि को मैं (पचप्रभ) सदा नमस्कार करता हूँ। वृत्तिकार ने अपने समय में विद्यमान 'माधवसेनाचार्य' को नमस्कार करते हए उन्हें संयम और ज्ञान की मूर्ति, कामदेवरूप हस्ति के कुभस्थल के भेदक और शिष्य रूप कमलों का विकास करने वाले सूर्य बतलाया है। पद्य में प्रयुक्त 'विराजते' क्रिया उनकी वर्तमान मौजूदगी की द्योतक है वह पद्य इस प्रकार है। "नोमस्तु ते संयमबोधमूर्तये, स्मरेभकुंभस्थल भेदनायवे, विनेयपरहविकासभानवे विराजते माधवसेनसरये ।।" माधवसेन नासपनेक दिन हगः है। परन्तु ये मासेन उनसे भिन्न जान पड़ते हैं। 'एक माधवसेन काष्ठासंघ के विद्वान नेमिषेण के शिष्य थे, और अमितगति द्वितीय के गुरु थे। इनका समय सं० १०२५ से १०५० के लगभग होना चाहिये। दूसरे माधवसेन प्रतापसेन के पट्टघर थे। इनका समय विक्रम की १३ बी १४ वीं शताब्दी होना संभव है। तीसरे माधवसेन मूलसंघ, सेनगण पोगरिगच्छ के चन्द्रप्रभ सिद्धान्त देव के शिष्य थे । इन्होंने जिन चरणों का मनन करके और पंच परमेष्ठी का स्मरण कर के समाधि मरण द्वारा शरीर का परित्याग किया था। इनका समय ई० सन् ११२४ (वि०सं० ११८१) है। चौथे माधवसेन को लोक्किय वसदि के लिये देकररस ने जम्बहलि प्रदान की। इस का दान माघवसेन को दिया था। यह शिलालेख शक संवत ७८५--सन् १०६२ ई० का है। प्रतः इन माधवसेन का समय ईसा की ११वीं शताब्दी का तृतीय चरण है। इन चारों माधवसेनों में से वृत्तिकार द्वारा उल्लिखित माधवसेन का समीकरण नहीं होता। अतः वे इनसे भिन्न ही कोई माधवसेन नाम के विद्वान होंगे। उनके गण-गच्छादि और समय का उल्लेख मेरे देखने में नहीं आया। पचप्रभ मनपारिदेव ने वृत्ति के पृ०६१ पर चन्द्रकीतिमुनि के मन की वन्दना की है। और पृष्ठ १४२ में उन्हों ने श्रत विन्दु' नाम के ग्रन्थ का 'तथा चोक्तं श्रुत बिन्दी, वाक्य के साथ निम्न पद्य उद्धत किया है : जयति विजयवोषोऽमर्पमपन्द्रमोलिप्रविलसवनमा लाभ्यचितांघ्रि जिनेन्द्रः । त्रिजगदजगती यस्ये दृशौ पश्मुवाते सममिव विषयेव्यम्योन्य वृति निषेत्र म॥ १. तयिष्यो विदिता खिलोक सभयो वादी र वाग्मी कविः । शब्दब्रह्मविचित्रषामयशसा मान्या सतामणीः । मासीत् श्रीमहासेम सूरिनिषः श्री मुंजराजापितः। सीमा दर्शन बोष वृत्तपसां मव्यान्जिनी बान्धवः ॥ -प्रद्युम्न चरित प्रशस्ति ३ २. महासेनस्य मधुरा शीलासंकार बारिणी। कथा न वरिणता केन वनिव सुलोचना ।।-हरिवंश पुराण १-३३ ३. यस्य प्रतिक्रमणमेव सदा मुमुमो-स्त्यि प्रतिक्रमण मप्यणुमात्र मुच्चैः। तस्मै नमः सकलसंयमभूषणाय, श्री वीरनन्दि मुनि नामपराय नित्यम् ॥-नियमसार वृत्ति ४. निरुपम मिदं वन्धं श्रीचन्द्रकीति मुने मनः ।। -नियमसार वृत्ति पृ० १५२
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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