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________________ कुन्दकुन्दाचयं ८१ है । जिस तरह वैध विष खाकर भी नहीं मरता, उसी तरह ज्ञानी भी पुद्गल कर्मों के उदय को भोगता है । किन्तु कर्मों से नहीं बंधता क्योंकि वह जानता है कि यह राग पुद्गल कर्म का है। मेरे अनुभव में जो रागरूप बास्वाद होता है वह उसके विपाक का परिणाम एवं फल है। वह मेरा निजभाव नहीं है । मैं तो शुद्ध ज्ञायक भाव रूप हूँ । अतएव सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञायक स्वभावरूप आत्मा को जानता हम्रा कर्म के उदय को कर्म के उदय का विपाक जानकर उसका परित्याग कर देता है। वाधिकार में बन्ध का कथन करते हुए वतलाया है कि आत्मा और पौद्गलिक कर्म दोनों ही स्वतन्त्र द्रव्य हैं। दोनों में चेतन अचेतन की अपेक्षा पूर्व और पश्चिम जैसा अन्तर है। फिर भी इनका अनादिकाल से संयोग बन रहा है। जिस तरह चुम्वक में लोहा खींचने और लोह में खिंचने की योग्यता है । उसी प्रकार श्रात्मा में कर्मरूप पुद्गलों को खींचने की भौर कर्मरूप पुद्गल में खिंचने की योग्यता है। अपनी-अपनी योग्यतानुसार दोनों का एक क्षेत्रागाह हो रहा है। इसी एक क्षेत्रावगाह को बन्ध कहते हैं। प्राचार्य महोदय ने एक दृष्टान्त द्वारा बन्ध का कारण स्पष्ट किया है। जैसे कोई मल्ल शरीर में तेल लगा कर धूल भरी भूमि में खड़ा होकर शस्त्रों से व्यायाम करता है । के श्रादि के पेड़ों को काटता है तो उसका शरीर धूलि से लिप्त हो जाता है। यहां उसके शरीर में जो तेल लगा है-चिक्कणता है उसी के कारण उसका शरीर धूल से लिप्त हुआ है। इसी प्रकार अज्ञानी जीव इंद्रिय विषयों में रागादि करता हुआ कर्मों से बंधता है, सो उसके उपयोग में जो रागभाव है वह कर्मबन्ध का कारण है । परन्तु जो ज्ञानी ज्ञानस्वरूप में मग्न रहता है, वह कर्मों से नहीं बंधता । आठवें मोक्षाधिकार में बतलाया है कि जैसे कोई पुरुष चिरकाल से बन्धन में पड़ा हुआ है और वह इस बात को जानता है कि मैं इतने समय से बंधा हुआ पड़ा हूँ। किन्तु उस बन्धन को काटने का प्रयत्न नहीं करता, तो वह कभी बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता। उसी तरह कर्म बन्धन के स्वरूप को जानने मात्र से कर्म से छुटकारा नहीं होता । परन्तु जो पुरुष रागादि को दूर कर शुद्ध होता है वही मोक्ष प्राप्त करता है। जो कर्मबन्धन के स्वभाव मोर ग्रात्म स्वभाव को जानकर बन्ध से विरक्त होता है वही कर्मों से मुक्त होता है। श्रात्मा श्रर बन्ध के स्वभाव को भिन्न भिन्न जानकर बन्ध को छोड़ना और श्रात्मा को ग्रहण करना ही मोक्ष का उपाय है। यहाँ यह प्रश्न होता है कि श्रात्मा को कैसे ग्रहण करे, इसका उत्तर देते हुए आचार्य ने कहा है कि प्रज्ञा ( भेद विज्ञान ) द्वारा जो चैतन्यात्मा है वही मैं हूं । दोष अन्य सब भाव मुझसे पर हैं - वे मेरे नहीं हैं। इत्यादि कथन किया गया है। सर्व विशुद्धि अधिकार में एक तरह से उन्हीं पूर्वोक्त बातों का कथन किया गया है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का विषय शुद्ध प्रात्म तत्व है । वह शुद्ध आत्मतत्त्व सर्वविशुद्धज्ञान का स्वरूप है। न वह किसी का कार्य है, और न किसी का कारण है, उसका पर द्रव्य के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। इस विचार से मात्मा और परद्रव्य में कर्त्ता कर्मभाव भी नहीं है । ग्रतएव श्रात्मा पर द्रव्य का भोक्ता भी नहीं है। अज्ञानो जीव अज्ञानवश ही आत्मा को परद्रव्य का कर्त्ता भोक्ता मानता है । इस ग्रन्थ पर श्राचार्य अमृतचन्द्र की श्रात्मख्याति, जयसेन की तात्पर्यवृत्ति और बालचन्द्र श्रध्यात्मी की टीकाएं उपलब्ध हैं। नियमसार - प्रस्तुत ग्रन्थ में १८७ गाथाएं हैं। जिन्हें टीकाकार मलधारि पद्मप्रभदेव ने १२ अधिकारों में विभक्त किया है। किन्तु यह विभाग ग्रन्थ के अनुरूप नहीं है । ग्रन्थकार ने इसमें उन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप श्रद्धान को सम्यग्दर्शन बतलाया है और प्राप्त आगम का स्वरूप बतलाकर तत्त्वों का कथन किया है, पश्चात् छह द्रव्यों और पंचास्तिकाय का कथन है । व्यवहारनय से पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति यह व्यवहार चारित्र है। ग्रागे निश्चयनय के दृष्टिकोण से प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, कायोत्सर्ग, सामायिक और परम भक्ति इन छह आवश्यकों का वर्णन किया है और बतलाया है कि निश्चयनय से सर्वज्ञ केवलं आत्मा को जानता है, और व्यवहारनय से सबको जानता है। इसी प्रसंग में दर्शन और ज्ञान की महत्वपूर्ण चर्चा दी । रचना महत्वपूर्ण और उपयोगी है।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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