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________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य और कवि पंचसंग्रह वीपक इस गन्य की १०४ पत्रात्मक ताडपत्रीय प्रति खंभात के श्वेताम्बरीय शान्तिनाथसेन भंडार में नं० १३५ उपलब्ध है। उससे ज्ञात होता है कि यह नेमिचन्द्र सिद्धान्त चन्द्रवर्ती के गोम्मटसार अपरनाम पंचसंग्रह की संस्कृत इलोक बद्ध रचना है, जैसा कि उसके प्रारम्भिक निम्न पद्यों से प्रकट है : सिद्धं शद्ध जिताधीशं नेमीशं गुणभूषणम् । न स्वा प्रन्थं प्रवक्ष्यामि 'पंचसंग्रह दोपकम् ॥१॥ नेमिचन्द्र मुनीन्त्रण यः कृतः पंचसंग्रहः । स चव श्लोक बंधेन प्रव्यक्ती कियते मया ॥२॥ बन्धको बध्यमानं च बंध वास्तथेसता। हेतयश्चेति पचानां संग्रहोऽभ प्रकाशते ॥३॥ यस्ता बंधको जोधः सद् सत्कर्मणां स्वयम् । तसम्वरूय प्रकाशाय विशतिः स्यु प्ररूपणा ॥४॥ गण जीवाश्च पर्याप्ति प्राणसंज्ञाश्च मार्गणा। उपयोग समा युक्ता भब्येता-प्ररूपणा ॥५॥ मार्गणा गुण-भेदाम्ला फवतो के प्ररूपणे। मार्गणांतर्गताशेषाः जीव मुख्याः प्ररूपणाः॥६॥ गोम्मटसार का इलोक बद्ध यह संस्कृतिकरण अब तक देखने में नहीं आया था । स्व. मुनिश्री पुण्यविजय जी ने खंभात के शांतिनाथ सेन भंडार की सूची भाग. २ में न. १३६ में पंचसंगह दीपक का इलोक बद्ध' नाम से परिषय दिया है। यह ताडपत्र प्रति १३वीं शताब्दी की लिखी हुई है। इति श्रीतषामदेव विरचिते 'पुरवाट वंश विशेषक श्री नेमिदेव यशःप्रकाशके पंचसंग्रह प्रदीपके बंधक स्वरूप प्र (प्ररूपिणो नाम) प्रथमो अधिकारः। यह प्रति संभवतः ग्रन्य रचना के समय की या प्रास-पास की रचो हुई जान पड़ती है। चूंकि विनयचन्द्र पंडित माशाधर जी के शिष्य थे, उन्होंने विनयचन्द्र को धर्मशास्त्र पढ़ाया था। विनयचन्द्र के शिष्य लोक्य कीति के शिष्य लक्ष्मीचन्द्र थे । इन लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य वामदेव ने इस ग्रन्थ की रचना की। पं० प्राशाधर जी १३वीं शताब्दी के विद्वान हैं। अतएव उसके बाद वामदेव का समय होना चाहिए। प्रतः वामदेव का समय विक्रम की १४वीं शताब्दी जान पड़ता है। अमरकोति यह ऐन्द्रवंश के प्रसिद्ध विद्वान थे। जो विद्य कहलाते थे। यह अपने समय के अच्छे विद्वान जान पड़ते हैं। इनका बनाया हुअा धनंजय कवि की नाममाला का भाष्य भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुका है। उस ग्रन्थ की पुष्पिका में उन्हें विद्य महा पंण्डित और शब्द वेघस बतलाया है। भाष्य को देखने से अमरकात विविध ग्रन्थों के अभ्यासी ज्ञात होते हैं। "इति महापमित श्रीमवमरकोतिना विद्य न श्रीसेन्द्रवंशोत्पन्नेन शब्द वेभसा कृतायां धनंजय नाम मालायां प्रथम काण्डं व्याख्यातम्" i See - No 1.19 Panchasangarha Dipak Slok Bandha, Folios 104 Extent Granthas Age M.S Firasta Play of 13th exet 4S-Shautinatha Sain Bhandar Cornbay –अनेकान्त वर्ष २३ कि.४५०९४६
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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