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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग २
प्रस्तुद कोश का भाष्य लिखते हुए अमरकीति ने परम भट्रारक यशःकीति, अमरसिंह, हलायुध, इन्द्रनन्दी, सोमदेव, हेमचन्द्र पौर आशाघर प्रादि के नामों का उल्लेख करते हुए महापुराण सूक्त मुक्तावली, हेमीनाममाला, यशस्तिलक, इन्द्रनन्दी का नीति सार और पाशाधर के महाभिषेक पाठ का नामोल्लेख किया है। इनमें पाशाघर का समय सं० १२४६ से १३०० तक है। अतः अमरकीति इसके बाद के विद्वान ठहरते हैं। यह १३वों शताब्दो के उपान्त्य समय के या १४वीं शताब्दी के पूर्व के विद्वान होने चाहिए।
हस्तिमल्ल इन के पिता का नाम गोविन्द भद्र था, जो वत्सगोत्री दक्षिणी ब्राह्मण थे। उन्होंने प्राचार्य समन्तभद्र के 'देवागमस्तोत्र' को सुनकर सद्दष्टि प्राप्त की थी—सर्वथा एकान्तरूप मिथ्यादृष्टि का परित्याग कर अनेकान्तरूप सम्यकदृष्टि के श्रद्धालु बने थे। उनके छह पुत्र धे-श्री कुमार, सत्यवाक्य, देवर बल्लभ, उदयभूपण, हस्तिमल्ल और बर्धमान'। ये सभी पुत्र संस्कृतादि भाषाओं के मर्मज्ञ और काध्य-शास्त्र के अच्छे जानकार एवं कवि थे।
हस्तिमाल कवि का असली नाम नहीं है। असली नाम कुछ और ही रहा होगा। यह नाम उन्हें सरण्यापुर में एक मदोन्मत्त हाथी को वश में करने के कारण पाण्ड्य राजा द्वारा प्राप्त हुआ था। उस समय राज सभा में उनका अनेक प्रशंसा वाक्य से सत्कार किया गया था। हस्ति युद्ध का उल्लेख सुभद्रा नाटक में कवि ने स्वयं किया है। उसमें जिन मुनि का रूप धारण करने वाले किसो धुर्त को भी परास्त करने का उल्लेख है।
कवि के सरस्वती स्वयंवर वल्लभ, महा कवि तल्लज और 'सूक्तिरत्नाकर' विरुद थे।
कवि हस्तिमल्ल गृहस्थ विद्वान थे। इनके पुत्र का नाम पाश्वं पंडित या । जो अपने पिता के समान ही यशस्वी, शास्त्र मर्मश और धर्मात्मा था। हस्तिमल्ल ने अपनी कोर्ति को लोक व्यापी बना दिया था। पौर स्यानादशासन द्वारा विशुद्ध कीति का अर्जन किया था। वे पुण्य मूर्ति और अशेष कवि चक्रवर्ती कहलाते थे। तथा परदादिरूप हस्तियों के लिये सिंह थे । अतएव हस्तिभल्ल इस सार्थक नाम से लाक में विश्रुत थे। इन्हें अनेक विरुव प्रथवा उपाधियां प्राप्त थीं, जिनका समुल्लेख कवि ने स्वयं विक्रान्त कौरव नाटक में किया है। 'राजा वलोकथे' के कर्ता कवि देवचन्द्र ने हस्तिमाल को 'उभय भाषा कविचक्रवर्ती सूचित किया है। कविवर हस्तिमल्ल ने स्वयं अपने को कनड़ी आदि पुराण की पुष्पिका में उभय भाषा चक्रवर्ती लिखा है। ऐसा जैन साहित्य और इतिहास से ज्ञात होता है। इससे वे संस्कृत और कनड़ी भाषा के प्रौढ़ विद्वान जान पड़ते हैं। उनके नाटक तो कवि की प्रतिभा के संद्योतंक हैं हो, किन्तु जैन साहित्य में नाटक परम्परा के जन्मदाता हैं। मेरे ख्याल में शायद उस समय तक नाटक रचना नहीं हुई थी। कविवर हस्तिमल्ल ने इस कमी को दूर कर जैन समाज का बड़ा उपकार किया है। यह उस समय
विकन्त कौरव
विकन्तकौन
१. गोविन्द भट्ट इत्यासीद्विद्वाग्मिश्यात्वजितः। देवागमन सूत्रस्यश्रुत्या सद्दर्शनान्वितः ।
अनेकान्तमतं तत्त्वं बहुभेने विदांवर, नन्दनातस्य संजाता वाधिकाखिनकोविदः ।। दाक्षिणात्या जयन्त्यत्र स्वर्णयक्षीप्रसादतः, श्रीकुमारकविः सत्यवाक्यो देवरवल्लमः ।। उद्यद्भूषणनामा च इस्तिमल्लाभिधानकाः; वर्षमानकवि वि षड् भूवन् कवीश्वरः । २. श्रीवत्सगोत्रजनभूषणगोपभप्रेमकथामतनुजो भुविहस्तियुद्धात् ।
नाना कालाम्बुनिधिपाण्डचमहीश्वरेण पलोकः शतस्सदसि सत्कृतवान् बभूव ।। २. सम्यक्त्वं सुपरीक्षितं भवगजे मुक्ते सरण्यापुरे।
चास्मिन्पाण्ड्यमहेश्वरेण कपटाद्धन्तु स्यमभ्यागते (त)। शंखूषं जिनमुदधारिणमपास्यासौ मदष्वंसिना । श्लोकेनापिमदेभमल्ल इति यः प्रख्यातवान्सूरिभिः ॥-सुभद्रा, सम्यक्त्वस्य परीक्षार्थ मुक्तं मत्तमतं जम् । य: सरण्यापुरे जित्वा हस्तिमल्लेति कीर्तितः ।। ४. 'इत्युभपापा कविचाबति हस्तिमाल विरचित पूर्वपुराण महाकथायां वामपर्वम्।"
-आदि पु० पुणिका