SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 467
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य और कवि सप्पउ भणइमा परिहरह पर उषयार घरत्यु । ससि-सूर वुह ग्रंथणि अण्ण हं कवण चिरस्यु ॥३ यह जीव गुरुतर गंभीर पाप करके शरीर संरक्षणार्थ धन का संचय करता है, कवि सुप्रभ कहते है कि धन रक्षित वह शरीर दिन पर दिन गलता जाता है, ऐसी अवस्था में धन-धान्यादि अन्य परिग्रह कैसे नित्य हो सकते हैं। जस कारणि धन संबइ पाव करे विगहीरु। तं पिछह सुरपउ भणइ, दिणि दिणि गलह सरीरु ॥३६ जो पुरुष दीनों को धन देता है. सज्जनों के गुणों का आदर करता है। और मन को धर्म में लगाता है। कवि सुप्रभ कहते हैं कि विधि भी उसकी दासता करता है। धणु दीणहं गुण सज्जणहं मणु धम्महं जो देह। तह परिसे सुपज भणइ विही वासत्तु कोइ ॥३८ जिस तरह अपने बल्लभ (प्रिय) का ध्यान किया जाता है वैसा यदि अरहंत का ध्यान किया जाय तो कवि सुप्रभ कहते हैं कि तब मनुष्यों के घर के प्रांगन में ही स्वर्ग हो जाय। जिम भाइज्जइ वल्लहउ तिमाह जिय अरिहंतु । सम्पउ भणइ ते माणसहं सग्गु धरिंगण हुतु ॥ इस तरह यह वैराग्य सार दोहा भावात्मक उपदेश का सुन्दर ग्रन्थ है। दोहों की भाषा हिन्दी के प्रत्यन्त नजदीक है। इससे यह ग्रन्थ १४वीं शताब्दी का जान पड़ता है। विद्यानन्द मूलसंघ बलात्कारगण। सस्वतीगच्छ कुन्दकुन्दान्वयं के विद्वान राय राजगुरुमंडलाचार्य महा वादवादीश्वर सकल विद्वज्जन चक्रवर्ती सिद्धन्ताचार्य पूज्यपाद स्वामी के शिष्य थे। शक सं० १३१३ या १३१४ (सन् १३९२ ई०) अंगिरस संवत्सर में फाल्गुन महीने के कृष्ण पक्ष की दशमी शनीवार के दिन विद्यानन्द के नाम पर निषिधि का निर्माण किया गया था। अत: मलखेड के यह विद्यानन्द ईसा की १५वीं सदी के विद्वान है। __ जैनिज्म इन साउथ इंडिया पृ०४२२ भास्करनन्दी प्रस्तुत भास्करनन्दी सर्वसाधु के प्रशिष्य और मुनि जिनचन्द्र के शिष्य थे। जैसा 'सूखबोषा' नामक तत्त्वार्थवृत्ति को प्रशस्ति के निम्न पद्यों से प्रकट है : "नो निष्ठोवेग्न शेते वति च न परं एहियाहीति जातु । नो कम्पयेत मात्र व्रजति न निशि नोटाट्येवद्वानपते। नावष्टं म्नाति किञ्चिद गणनिधिरिति यो बवपर्ययोगः। करवा संन्यासमन्ते शभगतिरभवत्सर्वसाधु प्रपूज्यः ॥२ तस्यासीत्सुविसवृष्टिविभवः सिद्धांतपारंगतः। शिष्यः श्रीजिनचन्द्रनामकलितश्चारित्र भवान्वितः।। शिष्यो भास्करनन्धिनाविधस्तस्या भवत्तत्ववित तेनाकारि सुखादिबोधविषया तत्वार्यवृत्तिः स्फट । भास्करनन्दी' नाम के एक विद्वान का उल्लेख लक्ष्मेश्वर (मंसूर) के सन् १०७७-७८ के लेख में मिलता १. एक भास्करनन्दी का उल्लेख पारा जैन सिद्धान्त भवन की न्याय मदचन्द्र की लिपि प्रति में सोयनन्दी प्रशिष्य और देवनन्दी के शिष्य भास्करनन्दी का उस्लेख है, जो क्षमसे मित्र है। (अनेकान्त वर्ष १ पृ. १३३
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy