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________________ ४५४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास- माग २ कहा कि जब मेरा रोग ठीक हो जायेगा, तब मैं अपना राज्य वापिस ले लूँगा । श्रीपाल अपने साथियों के साथ नगर छोड़ कर चले गए, और अनेक कष्ट भोगते हुए उज्जन नगर के बाहर जंगल में ठहर गए। वहां का राजा अपने को ही सब कुछ मानता था कर्मों के फल पर उसका विश्वास नहीं था । उसको पुत्री मंना सुन्दरी ने जैन साधुनों के पास विद्याध्ययन किया था कर्मसिद्धान्त का उसे अच्छा परिज्ञान हो गया था। उसकी जैनधर्म पर बड़ी श्रद्धा और भक्ति थी! साथ ही साध्वी और शीलवती थी। राजा ने उसे अपना पति चुनने के लिये कहा, परन्तु उसने कहा कि यह कार्य शीलवती पुत्रियों के योग्य नहीं है। इस सम्बन्ध में आप ही स्वयं निर्णय करें। राजा ने उसके उत्तर से असन्तुष्ट हो उसका विवाह कुष्ट रोगी धोपाल के साथ कर दिया। मंत्रियों ने नदत समभाया परन्तु उस पर राजा ने कोई ध्यान न दिया। निदान कुछ ही समय में मैना सुन्दरी ने, सिद्ध चक्र का पाठ भक्ति भाव से सम्पन्न किया और जिनेन्द्र के अभिषेक जल से उन सब का कुष्ठ रोग दूर हो गया। और वे सुखपूर्वक रहने लगे । पश्चात् श्रीपाल बारह वर्ष के लिये विदेश चला गया, वहां भी उसने कर्म के अनेक शुभाशुभ परिणाम देखे और बाह्मविभूति के साथ बारह वर्ष बाद मनासुन्दरी से प्रा मिला। उसे पटरानी बनाया और चम्पापुर जाकर चाचा से अपना राज्य वापिस लेकर प्रजा का सुखपूर्वक पालन किया । अन्त में तप द्वारा ग्रात्म-लाभ किया। इस कथानक से सिद्धचक्र की महत्ता का आभास मिलता है। रचना सुन्दर और संक्षिप्त है । कथानक रोचक होने के कारण इस पर अनेक ग्रन्थकारों की विभिन्न कृतियां पाई जाती हैं। ग्रन्थ में रचना काल और रचना स्थल का उल्लेख नहीं है। जिनरात्रि कथा-इसे बर्धमान कथा भी कहा जाता है। जिस रात्रि में भगवान महावीर ने प्रष्ट कर्म का नाशकर अविनाशी पद प्राप्त किया उस व्रत की यह कथा शिवरात्रि के ढंग पर रची गई है। उस रात्रि में जनता को इच्छामों पर नियंत्रण रखते हुए प्रात्म-शोधन का प्रयत्न करना चाहिये । रचना सरस है। कवि ने रचना में अपना कोई परिचय नहीं दिया और म गुरु परम्परा तथा समयादि का कोई उल्लेख ही किया है। इससे कवि के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं प्राप्त हो सकी। सिद्धचक्र कथा की प्रति सं०१५१२ लिखी हुई उपलब्ध है, उस से इतना तो सुनिश्चित है कि ग्रन्थ उक्त संवत् से पूर्व बन चुका था। संभवतः ग्रन्थ १४वीं शताब्दी के पास-पास कहीं रचा गया जान पड़ता है। सुप्रभाचार्य इनका कोई परिचय प्राप्त नहीं है। इनकी एकमात्र कृति ७७ दोहात्मक वैराग्यसार है। जिसमें संसार के पदार्थों की असारता दिखलाते हुए वैराग्य को पुष्ट किया गया है। दोहों का अर्थ व्यक्त करने वाली अज्ञात कर्तृक एक संस्कृत टीका भी है, जो जैन सिद्धान्त भास्कर भाग १६ किरण २ और भाग १७ किरण १ में प्रकाशित है। दोहा उपदेशिक है। पाठकों की जानकारी के लिये उसमें से कुछ दोहा भावानुवाद के साथ नीचे दिये जाते हैं। भाषा सरल कथनी सम्बोधात्मक हैं। ग्रन्थ का पहला पद्य ही वैराग्यभाव का प्रतिपादन करता है। संसार में जहां एक घर में बधाई मंगलाचार हो रहे हैं वहीं दूसरे घर में घाड़मार-मार कर रोया जा रहा है। कवि सुप्रभपरमार्थभावसे कहता है कि ऐसी विषम स्थिति में वैराग्य भाव क्यों धारण नहीं किया जाता? इक्कहि घरे बधामणा प्रणहि घरि धाहहि रोविज्जइ। परमत्माई सुप्पट भणइ, किम बहरायाभाउ म किज्जह ॥१ सांसारिक विषयों की अस्थिरता और संसार की दुःखबहुलता का प्रतिपादन करते हए कवि प्रभ कहते है। कि हे धामिको ! दशविध धर्म से स्खलित मत होयो, सूर्योदय के समय जो शुभ ग्रह थे। वे सूर्यास्त के होने पर श्मशान हो गए। सुप्पउ भणहरे धम्मिपर खसह म धम्मवियाणि। जे सूरम्गमि धवलहरि ते अंथक्षण मसाण ॥२ कवि सुप्रभ का कहना है कि परोपकार करना मत छोड़, क्योंकि संसार क्षणिक है जब चन्द्रमा और मय भी अस्त हो जाते हैं तब अन्य कौन स्थिर रह सकता है।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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