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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - मांग २
. वे सोचने लगे कि भाई को परिग्रह की चाह ने ग्रंधा कर दिया है और अहंकार ने उनके विवेक को भी दूर भगा दिया है। पर देखो, दुनिया में किसका अभिमान स्थिर रहा है ? अहंकार को चेष्टा का दण्ड हो तो अपमान है । तुम्हें राज्य की इच्छा है तो लो इसे सम्हालो और जो उस गद्दी पर बैठे उसे अपने कदमों में भुकालो, उस राज्य सत्ता को धिक्कार है, जो न्याय-अन्याय का विवेक भुला देती है। भाई भाई के प्रेम को नष्ट कर देती है और इंसान को हैवान बना देती है । अब मैं इस राज्य का त्याग कर आत्म-साधना का अनुष्ठान करना चाहता हूँ और सबके देखते-देखते ही वे तपोवन को चले गये, जहां दिगम्बर मुद्राद्वारा एक वर्ष तक कायोत्सर्ग में स्थित रहकर उस कठोर तपश्चर्या द्वारा श्रात्म-साधना की, और पूर्ण ज्ञानी बन स्वात्मोपलब्धि को प्राप्त हुए ।
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ग्रन्थ में अनेक स्थल काव्यमय और अलंकृत मिलते हैं। कवि ने अपने से पूर्ववर्ती अनेक कवियों और उनको कुछ प्रसिद्ध कृतियों का नामोल्लेख किया है - जैसे कविचक्रवर्ती धीरसेन, जैनेन्द्र व्याकरण के कर्ता देवनन्दी (पूज्यपाद) श्री वज्रसूरि और उनके द्वारा रचित षट्दर्शन प्रमाण ग्रन्थ महासेन सुलोचना चरित, रविषेण पद्मचरित जिनसेन हरिवंश पुराण, मुनि जटिल बरांगचरित, दिनकर सेन कंदर्प चरित, पद्मसेन पार्श्वनाथ चरित, अमृताराधना गणिम्बसेन, चन्द्रप्रभ चरित, घनदत्त चरित, कवि विष्णु सेन मुनिसिनन्दी, अनुप्रेक्षा, नवकार मन्त्र-नरदेव' कवि श्रग वीरचरित, सिद्धसेन, कवि गोविन्द, जयवबल, शालिभद्र, चतुर्मुख, द्रोण, स्वयंभू, पुष्पदन्त मौर सेदु कवि |
कवि ने इस ग्रंथ का नाम 'काम चरिउ या कामदेव चरित भी प्रकट किया है और उसे गुणों का सागर बतलाया हैं । ग्रन्थ में यद्यपि छन्दों की बहुलता नहीं है फिर भी ११ वीं संधि में दोहों का उल्लेख अवश्य हुआ है। कवि ने इस ग्रंथ की रचना उस समय को है जब कि हिन्दी भाषा का विकास हो रहा था। कवि ने इसे वि० सं० १४५४ में वैशाख शुक्ला त्रयोदशी को स्वाति में स्थित सिद्धियोग में सोमवार के दिन, जबकि चन्द्रमा तुला राशि पर स्थित या पूर्ण किया है" ।
ग्रन्थ निर्माण में प्रेरक
प्रस्तुत ग्रन्थ चन्द्रवाड नगर के प्रसिद्ध राज श्रेष्ठी और राजमंत्री, जो जादव कुल वासाघर की प्रेरणा से बनाया है, और उन्हीं के नामांकित किया है। वासाघर के पिता का नाम सोमदेव था, जो के भूषण थे । साहु संभरी नरेन्द्र कर्णदेव के मन्त्री थे। कवि ने साहु वासाघर को सम्यक्त्वी, जिन चरणों के भक्त, जिन धर्म के पालन में तत्पर, दयालु, बहुलोक मित्र, मिथ्यात्वरहित और विशुद्ध चित्तवाला बतलाया है। साथ ही आवश्यक दैनिक षट् कर्मों में प्रवीण, राजनीति में चतुर और अष्ट मूलगुणों के पालने में तत्पर प्रकट किया है। जिणणाह चरणभत्तो जिणधम्मपरो वया लोए, सिरि सोमदेव तणो णंदर वासद्वरो णिच्वं ॥
सम्मत जुतो निणपायभत्तो दयालुरतो बहुप्रोयमितो |
मिच्छत चसो सुविसद्ध चित्ते वासाघरो पदंड पुण्य चिसो ।
वि संघ के लिए कल्पनिवि थी। बाहर और रूपदेव । ये सभी पुत्र
- सन्धि ३
इनके आठ पुत्र थे, जसपाल, जयपाल, रतपाल, चन्द्रपाल, विहराज, पुण्यपाल, म उभयश्री या, जो पतिव्रता और शीलव्रत का पालन करने वाली तथा चतुअपने पिता के समान ही सुयोग्य, चतुर और धर्मात्मा थे। इन आठों पुत्रों के साथ
१. श्री लंच के बुकुलपद्म विकासभानु, सोमात्मजो दुरित चारुवयकृशानुः । धर्मकानरो भुविभव्य बन्धुर्वासाघरो विजयते गुणरत्न सिन्धुः - संधि ॥
२. विक्रमणरिदं अक्रिय समए, चउदहसय संवारहि गए ।
नासरिसच अहिय गणि वैसा हरहो सिय-तेरसि सु-क्षिणि । साई परिट्ठियई बार सिद्ध जोग जायें डियई ।
-- बाहुबलि चरित प्रशस्ति