SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 283
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्यारहवीं और वायहनों पाताब्दी के विद्वान, आचार्य प्राया। उस समय भवदेव का दुर्मर्षण मोर नाग देवी की पुत्री नागवसु से विवाह हो गया था। भाई के पागमन का समाचार पाकर भवदेव उससे मिलने पाया, और स्नेहपूर्ण मिलने के पश्चात् उसे भोजन के लिये अपने घर में ले जाना चाहता था, परन्तु भवदत्त भवदेव को अपने संघ में ले गया और वहां मुनिवर से साघु दीक्षा देने को कहा भवदेव असमंजस में पड़ गया, क्योंकि उसे घर में रहते हुए विषय-सुखों का आकर्षण जो था, किन्तु भाई को उस सदिच्छा का अपमान करने का उसे साहस न हुआ। और उपायान्तर न देख प्रवज्या (दीक्षा) लेकर भाई के मनोरय को पूर्ण किया, और मुनि होने के पश्चात १२ वर्ष तक संघ के साथ देश-विदेशों में भ्रमण करता रहा। किन्तु उसके मन में नागवसु के प्रतिरागभाव बना रहा । एक दिन अपने नाम के पास से निकला। उसे विषय-चाह ने पाकर्षित किया और वह अपनी स्त्री का स्मरण करता हुमा एक जिनालय में पहुँचा, वहां उसने एक अजिका को देखा, व्रतों के पालने से प्रतिकृशगात्र, अस्थि पंजर मात्र शेष रहने से भवदेव उसे पहचान न सका । अतः उससे उसने अपनी स्त्री के विषय में कुशल वार्ता पूछी। अजिका ने मुनि के चित्त को चलायमान देखकर उन्हें धर्म में स्थिर किया और कहा कि वह अापकी पत्नी मैं ही हैं। आपके दीक्षा का समाचार मिलने पर मैं भी दीक्षित हो गई थी। भवदेव पुनः छेदोपस्थापना पूर्वक संयम का अनुष्ठान करने लगा। अन्त में दोनों भाई मरकर सनत्कुमार नामक स्वर्ग में देव हुए और सात सागर की आयु नक बहां वास किया । भवदत्त का जीव स्वर्ग से चयकर पुण्डरीकिनी नगरी में वज्रदत्त राजा के घर सागरचन्द नाम का और भवदेव का जीव वीसशोका नगरी के राजा महा पद्म चक्रवर्ती को वनमाला रानी के शिव कुमार नाम का पुत्र हुमा । शिवकुमार का १०५ कन्याओं से विवाह हुमा, करोड़ों उनके अंग रक्षक थे, जो उन्हें बाहर नहीं जाने देते थे। पुडपरीकिनी नगरी में चारण मुनियों से अपने पूर्व जन्म का वृत्तान्त सुनकर सागर चन्द्र ने देह-भोगों से विरक्त हो मुनि दीक्षा लेली। प्रयोदश प्रकार के चारित्र का अनुष्ठान करते हुए भाई को सम्बोधित करने वोतशोका नगरी में पधारे। शिवकुमार ने अपने महलों के ऊपर से मुनियों को देखा, उसे पूर्व जन्म का स्मरण हो माया, उसके मन में देह-भोगों से विरक्तता का भाव उत्पन्न हुआ, उससे राज प्रासाद में कोलाहल मच गया। पौर उसने अपने माता-पिता से दीक्षा लेने की अनुमति मांगी। पिता ने बहुत समझाया और कहा कि घर में ही तप और व्रतों का अनुष्ठान हो सकता है। दीक्षा लेने की आवश्यता नहीं, पिता के अनुरोध वश कुमार ने तरुणीजनों के मध्य में रहते हुए भी विरक्त भाव से नव प्रकार से ब्रह्मचर्य व्रत का अनुष्ठान किया। और दूसरों से भिक्षा लेकर तप का प्राचरण किया। और प्रायु के अन्त में वह विद्युन्माली नाम का देव हुआ। वहां दश सागर की प्रायु तक चार देवांगनामों के साथ सुख भोगता रहा । अब वही विद्युन्माली देव यहाँ आया था, जो सातवें दिन मनुष्यरूप से प्रयतारित होगा । राजा श्रेणिक ने विद्युन्माली की उन चार देवांगनाओं के विषय में पूछा । तब गौतम स्वामी ने बताया कि चम्पानगरी में सूरसेन नाम के सेठ की चार स्त्रियां थी जिनके नाम जयभद्रा, सुभद्रा, धारिणी मोर यशोमती । वह सेठ पूर्व संचित पाप के उदय से कुष्ट रोग से पीड़ित होकर मर गया, उसकी चारों स्त्रियां मजिकाए हो गई और तप के प्रभाव से वे स्वर्ग में विद्युन्माली की चार देवियां हई। पश्चात् राजा श्रेणिक ने विधुच्चर के विषय में जानने की इच्छा व्यक्त की 1 तब गौतम स्वामी ने कहा कि मगध देश म हस्तिनापुर नामक नगर के राजा विसन्धर और श्रीसेना रानी का पुत्र विद्युच्चर नाम का या। वह सब विद्याओं और कलानों में पारंगत था, एक चोर विद्या ही ऐसी रह गई थी जिसे उसने न सीखा था। राजा ने विद्युच्चर को बहुत समझाया, पर उसने चोरी करना न छोड़ा। वह अपने पिता के घर में हो पहुंच कर चोरी कर लेता था और राजा को सुषुप्त करके उसके कटिहार आदि आभूषण उतार लेता था। और विद्या बल से चोरी किया करता था। पब वह अपने राज्य को छोड़कर राजगृह नगर में प्रा गया, और वहां कामलता नामक वेश्या के साथ रमण करता हुआ समय व्यतीत करने लगा । गौतम गणधर ने बताया कि उक्त विद्युन्माली देव राजगृह नगर में महद्दास नाम के धष्ठि का पुत्र होगा, और उसी भव से मोक्ष प्राप्त करेगा। पप्रनन्दी (जम्बूद्वीपपण्णत्ती के कर्ता) पानन्दी नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। उनमें प्रस्तुत पअनन्दि उनसे भिन्न जान पड़ते हैं। क्योंकि
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy