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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
पाभ्युदय काव्य का उल्लेख शकसं० ७०५ में हरिवंश में पुन्नाट संधी जिनसेनने किया है। और लिखा है कि भगवान पार्श्वनाथ के गुणों की स्तुति उनको कीर्तिकासकर्तन करती है। इससे स्पष्ट है कि जिनसेन ने शक सं० ७०५ से पूर्व ही ग्रन्थ रचना शुरू कर दी थी। अतः उक्त पाश्वभ्युदय काव्य शक सं० ७०० लगभग की रचना है, क्योंकि शक सं० ७०५ में उसका उल्लेख मिलता है। इस रचना के समय जिनसेन को आयु कम से कम १५ और २० वर्ष के मध्य रही होगी। पाश्र्वभ्युदय काव्य की रचना से ५६ वर्षबाद उन्होंने जयघबला को शक़ सं० ७५६ सन् ८३७ में पूर्ण किया है। यहां यह प्रश्न हो सकता है कि आचार्य जिनसेन ने शक सं० ७०० से ७३८ के मध्यवत समय में क्या कार्य किया । इस सम्बन्ध में यह विचारणीय है कि जब गुरु वीरसेन ने घवला और जबधवला टीका बनाई, तब उसमें उन्होंने अपने गुरु को अवश्य सहयोग दिया होगा । और यदि उन्होंने उस कान में ग्रन्य किसी ग्रन्थ की रचना की होती तो वे उसका उल्लेख अवश्य करते ।
उसके बाद उन्होंने आदि पुराण को रचना की है। और वे महापुराण की रचना करते हुए बीच में ही स्वर्गवासी हो गए। उनके इस अधूरे पुराण को उनके शिष्य गुणभद्राचार्य ने पूर्ण क्रिया है। श्रादि पुराण के दश हजार श्लोंकी रचना करने में ५-६ वर्ष का समय लग जाना अधिक नहीं है। इससे जिवसेना चार्य दीर्घ जीवी थे । और उनका स्वर्गवास ८० वर्ष की अवस्था में हुआ होगा ।
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दशरथ गुरु
दवारथ गुरु — पंचस्तूपान्वयी वोरसेन के शिष्य थे, और जैन सेनाचार्य के सधर्मा बन्धु-गुरुभाई थे। जो बड़े विद्वान थे - जिस तरह सूर्य अपनी निर्मल किरणों से संसार के पदार्थों को प्रकाशित करता है । उसी प्रकार वे भी अपने वचन रूपी किरणों से समस्त जगत को प्रकाशमान करते थे। जिनसेनाचार्य का जो समय है, वही दशरथ गुरु का है, जिनसेनाचार्य ने मपनी जयधवला टीका शक सं० ७५६ (सन् ६३७) में पूर्ण की है। प्रतएव दशरथगुरु का समय भी सन् ८०० से ८३७ होना चाहिये ।
गुणमत्र- मूलगंध सेनान्वय के विद्वान थे (गुरुभाई) दशरथ गुरु के शिष्य थे । सिद्धान्त शास्त्र तथा देदीप्यमान ( तीक्ष्ण) थी, जो अनेक नय और जगत में प्रसिद्ध थे । जो तपोलक्ष्मी से भूषित थे।
गुणभद्राचार्य और पंचस्तूपान्वय के विद्वान आचार्य जिनसेन के सधर्मा रूपी समुद्र के परिगामी होने से जिनकी बुद्धि अतिशय प्रगल्भ प्रमाण के ज्ञान में निपुण, अगणित गुणों से विभूषित, समस्त उत्कृष्ट ज्ञान से युक्त, पक्षोपवासी, तपस्वी तथा भावलिंगी
१. यामिताभ्युदये पाए जिनेन्द्रगुरण संस्तुतिः । स्वामिनो जिनसेनस्य कीतिः संकीर्तयत्वसौ ॥४०
- हरिवंशपुराण
२. दारवगुरुरासीत्तस्य धीमान्मधर्मा शशिन इव दिनेशो विदवलोकंक चक्षुः । निखिलमिद मदोरि व्यापितद्भाङ्मयूखः । प्रकटितनिजभाव निर्मधर्मसार: ॥ १२
- उत्तर पुराण प्रशस्ति ३. प्रत्यक्षीकृत लक्ष्य लक्षण विधि विश्वविद्यां गतः । सिद्धान्ताविवसानयान जनित प्रागसम्भा बुद्धी; । नानाभूननयप्रमाणनिपुणोत्राण्ये गुंभूषित: । शिष्यः श्रीगुणभद्रसूरिरनयोरासीज्जगद्विश्रुतः ॥ -० पु० प्रशस्ति १४