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________________ नवभी-पदवीं शताब्दी के आचार्य मुनिराज थे। राष्टकूट राजा अमोघवर्ष ने गुणभद्राचार्य को अपने द्वितीय पुत्र कृष्ण का शिक्षक नियुक्त किया था। इन्होंने जिनसेनाचार्य के दिवंगत हो जाने पर उनके प्रपूर्ण प्रादि पुराण को १६२० श्लोकों की रचना कर उसे पूरा किया था। उसके बाद उन्होंने पाठ हजार श्लोक प्रमाण 'उत्तर पुराण' की रचना की। उसकी रचना में गुणभद्राचार्य ने कवि परमेष्ठी के 'वागर्थ संग्रह' पुराण का आश्रय लिया था। उत्तर पुराण में द्वितीय तीर्थकर अजितनाव से लेकर २३ तीर्थकरों, ११ चक्रवर्ती, नव नारायण, नव बलभद्र मौर। प्रतिनारायण तथा जीवंधर स्वामी प्रादि विशिष्ट महापुरुषों के कथानक दिये हुए हैं। इस पुराण को कवि ने संभवत: बंकापुर में समाप्त किया था। प्रस्तुत बंकापुर अपने पिता वोर बंकेय के नाम से लोकादित्य द्वारा स्थापित किया गया। प्रपितामह मुकुल के वंश को विकसित करने वाले सूर्य के प्रताप के साथ जिसका प्रताप सर्वत्र फैल रहा था, और जिसने प्रसिद्ध शत्रुरूपी अंधकार नष्ट कर दिया था, जो चेल्ल पताका वाला था जिसकी पताका में मयूर का चिन्ह था । चेलध्वज का अनुज था और चेल्ल केतन बकेय का पुत्र था, जैनधर्म की वृद्धि करने वाला, चन्द्रमा के समान उज्वल यश का धारक लोका दित्य बंकापुर में वनवास देश का शासन करहा था। उस समय बंकापुर वनवासि प्रान्तकी राजधानी था। और अनेक विशाल जिन मन्दिरों से सुशोभित था। यह नपतगका सामन्त था, पौर वीर योद्धा था। इसने गंगराज राजमल को युद्ध में पराजित कर बन्दी बनाया था। इस विजयोपलक्ष्य में भरी सभा में वीर बंकेय को नृपतुग द्वारा अभीष्ट वर मांगने की माज्ञा हई। तब जिनमरत बकेय ने गदगद हो नृपतुंग से यह प्रार्थना की, कि अब मेरो कोई लौकिक कामना नहीं है। यदि आप देना ही चाहें तो कोलनूर में मेरे द्वारा निर्मित जिनमंदिर के लिये पूजादि कार्य संचालनार्य एक भूदान प्रदान कर सकते हैं। उन्होंने वैसा ही किया। बकेय को पत्नी विजयादेवी बड़ी विदुषी थी। इसने संस्कृत में काव्य रचना की है। । इनका पुत्र लोकादित्य भी अपने पिताके समान ही वीर और पराक्रमी था। लोकादित्य शत्रु रूपी पन्धकार को मिटाने वाला एक ख्याति प्राप्त शासक था। लोकादित्य पर गुणभद्राचार्य का पर्याप्त प्रभाव था । लोकादित्य जैन धर्म का प्रेमी था, और समूचा चमवासि प्रान्त लोकादित्य के वस में या । प्राचार्य जिनसेन की इच्छा महापुराण को विशाल ग्रन्थ बनाने की थी। परन्तु दिवंगत हो जाने से वे उसे पूर्ण नहीं कर सके । ग्रन्थ का जो भाग जिनसेन के कथन से अवशिष्ट रह गया था, उसे निर्मल बुखि के धारक गुण भद्रसूरि ने हीनकाल के अनुरोध से तवा भारी विस्तार के भय से संक्षेप में ही संग्रहीत किया है। उत्तर पुराण को यदि गुणभद्राचार्य प्रादि पुराण के सदृश विस्तृत बनाते तो महापुराण एक उत्कृष्ट कोटि का महाभारत जैसा एक विशाल ग्रन्थ होता। किन्तु प्राय काय प्रादि की स्थिति को देखते हुए वे उसे जल्दी पूर्ण करना चाहते थे। इसी से उसमें बहुत से कयन मौलिक प्रौर विस्तृत नहीं हो पाये हैं, और कितने ही कयानकों से मुख मोड़ना पड़ा है। कुछ कथानकों में वह विशदता भी शीघ्रता के कारण नहीं लासके हैं। फिर भी उनका उक्त प्रयत्न महान और प्रशंसनीय है। १. तस्सय सिस्सो गुणवं गुणभद्दो दिव्वणाण परिपुष्णा । पक्खोवधास मंडी महातवो भावसिंगो व॥ ---दर्शनसार २. देखो, डा. अल्तेकर का राष्ट्रकूटाज और उनका समय १० ३. चेल्सपताके चेल्लध्दजानुजे चेल्लकेतनतनूजे । जैनेन्द्रधर्मवद्ध विधापिनिविधुवीन पृयु यशसि ।। - उत्त० पु० प्रशस्ति ३३ ४. "सरस्वती व कर्णाटी विजयांका जयत्यसौ। या वक्ष्मा गिरी बासः कालिदासादनन्तरम् ।।' ५. अति विस्तर भीरुत्वादवशिष्ट सङग होत ममलधिया । गुणभद्र सूरिणेदं--प्रहोणकालानुरोधेन ॥ -उत्तर० पु० प्रश० २०
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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