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________________ ३१२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ अहिच्छत्र पुरोत्पन्नः प्राग्वाटकुलशालिनः । छाहडस्य सुतश्चके प्रबन्धं वाग्भटः कविः ।। इससे स्पष्ट है कि कवि का जन्म अहिच्छत्रपुर में हया था। उनके पिता का नाम छाहड़ और कुल प्राग्वाट (पोरवाड़) था । अहिच्छत्रपुर नाम के दोनों का वह मिलता है। उनमें हिच्छत्रपुर उत्तरी पंचाल की राजधानी था, जो एक पुरातन ऐतिहासिक नगर है। विविध तीर्थ कल्प (पृष्ठ १४) में इसका प्राचीन नाम 'संखावती' दिया है 1 अहिच्छत्र का नाम तेईसवें तीर्थकर भगवान पाश्वनाथ के उपसंग के जीतने और कैवल्य प्राप्त करने के कारण लोक में प्रसिद्ध हुआ है । सोलह जनपदों में पंचाल का नाम पाया है। उसमें पंचाल अनपद के दो भाग बतलाये हैं ; उत्तर और दक्षिण । उत्तर पंचाल की राजधानी अहिच्छत्र और दक्षिण को राजधानी काम्पिल्य । सातवीं शताब्दी के प्रसिद्ध आचार्य पात्र केसरी ने अहिच्छत्र के राजा की सेवा का परित्याग करके जैन दीक्षा ले ली थी । और बौद्धों के त्रिलक्षण हेतु का निरसन करने के लिये विलक्षणकदर्थन' नाम का एक विशाल दार्शनिक ग्रन्थ बनाया था। जो इस समय अनुपलब्ध है। दूसरे अहिच्छत्र के राजा दुर्मुख की कथा जगत प्रसिद्ध है। बहां राजा बसुपाल ने पार्श्वनाथ का एक विशाल मन्दिर बनवाया था और उसमें कलात्मक सुन्दर पावनाष की मूति का निर्माण कराकर उसे वहां प्रतिष्ठित किया था और कलाकार को प्रचर द्रव्य प्रदान किया था। नागौर को नागपुर और अहिच्छत्रपुर कहा जाता था। पर उसकी इतनी प्रसिद्धि नहीं थी। और न वह तीर्थ ही कहलाता था। अस्तु यह निर्णय करना यहां शक्य नहीं है, किस अहिच्छत्रपुर में वाग्भट का जन्म हुआ था। इसके लिये प्राचीन प्रमाणों के अन्वेषण की आवश्यकता है । तभी इसका निर्णय हो सकेगा। रचना कवि को एक मात्रकृति 'नेमिनिर्वाण' काव्य है, जो १५ सर्गों में विभाजित है। और जिसकी श्लोक संख्या १५६ है। इस काव्य में भगवान नेमिनाथ का जीवन वृत्त अंकित है। प्रथम सर्ग में चतुर्विशति तीर्थकरों का सुन्दर स्तवन दिया हुआ है। महाराज समुद्र विजय पुत्र के प्रभाव में चिन्तित रहते थे। उन्होंने पुत्र प्राप्ति के लिये अनेक व्रतों का अनुष्ठान किया था। दूसरे सर्ग में रानी ने रात्रि के पिछले भाग में सोलह स्वप्न देखे, महारानी शिवा की सेवा के लिये देवांगमाएं पाई और अनेक तरह से माता की सेवा करने लगीं तीसरे सर्ग में रानी ने राजा से स्वप्नों का फल पूछा, राजा ने बतलाया कि तुम्हें लोकमान्य पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी, जो लोक का कल्याण कर मुक्ति को प्राप्त करेगा। चौथे सर्ग में तीर्थकर के गर्भ में पाने से रानी के सौन्दर्य को अभिवृद्धि होना और श्रावण शुक्ला षष्ठी क दिन पुत्र का जन्म हुआ, तीर्थकर के जन्माभिषेक की सूचना चारों निकायों के देवों को घण्टा, और शंखध्वनि मादि से प्राप्त हुई और वे सपरिकर वारावती में पाये । __ --- -- १ स्व. म. म. ओझा जी के अनुसार 'नागौर का पुराना नाम नागपुर या अहिच्छात्र पुर था। -देखो, नागरी प्रचारिणी पत्रिका मा० २ पृ० ३२६ २ देखो, अनेकान्त वर्ष २४ किरण ६ पृ. २६५ में प्रकाशित लेखक का उत्तर पचाल की राजधानी अहिच्छत्र नाम का लेख । ३ भूभृत्पदानुवर्ती सन् राज सेवा परांगमुखः । संयतोऽपि च मोक्षार्थी भात्यसो पात्रकेशरी ।। देखो,-जगरतास्लुक शिलालेख ४ हरिषेण कषा कोश की १२ वी कथा पृ० २२ ५ हरिषेण कथा कोशकी २०वीं कथा ।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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