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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-माग २ १३ वीं संधि में भी संयम का उपदेश दिया गया है । और गृहस्थों के पांच प्रणुपत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षावतों का कथन करते हुए रात्रि भोजन त्याग पर जोर दिया है। और शन्त में समाधिमरण का उपदेश है। उसके साथ ही सन्धि समाप्त हो जाती है।
अन्तिम १४ वीं सन्धि में दान और तप कर्म का उपदेश दिया गया है। दान की महत्ता का भी कथन किया है और उसका फल भोगभूमि का सुख बतलाया है। दान को दुर्गति नाशक और सब कल्याणों का कर्ता बतलाया है। उत्कृष्ट पात्र दान का फल उत्कृष्ट कहा है। ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है, उसका प्रकाशन होना चाहिए।
श्री चन्द्रकीति यह काष्ठा संघान्तर्गत माथुरसंघ के विद्वान श्रीषेणसूरि के दीक्षित शिष्य थे। जो तपरूपी लक्ष्मी के निवास और अथिजन समूह की प्राशा को पूरी करने वाले, तथा परवादिरूपी हाथियों के लिए मगेन्द्र थे। इनके शिष्य अमरकीति थे । जिनकी दो रचनाएँ नेमिपुराण (१२४४) और षट्कर्मोपदेश (१२४७) उपलब्ध हैं। श्रीचन्द्रकीर्ति का समय सिमाम को १३वी शताब्दी का पूर्वार्ध है । अर्थात् वे सं० १२२० से १२३५ के विद्वान होने चाहिए।
कवि अग्गल अम्गल मूलसंध, देशीयगण पुस्तक गच्छ और कुन्दकुन्दान्वय के विद्वान श्रुतकीति विद्यदेव का शिष्य था। इसके पिता का नाम शान्तोश और माता का नाम पोचाम्बिका था। कवि का जन्म इगलेश्वर नाम के ग्राम में हुआ था। यह संभवतः किसी राज परिवार का प्रसिद्ध कवि था । जैन जैन मनोहर चरित, कवि कुल कलभ-दातयू थाधिनाथ, काव्य-कर्णधार, भारती-बालनेत्र, साहित्यविद्याविनोद, जिन समयसार-केलि मराल मौर सुललित कविता नर्तकी नृत्य-रंग आदि इनके विरुद थे।
इस कवि की एकमात्र कृति चन्द्रप्रभ पुराण है, जिसमें पाठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ का जीवन परिचय अंकित किया गया है। मद्रास लायनरी में विलगी नाम के स्थान का शिलालेख है। उससे ज्ञात होता है कि इसने उक्त अन्य अपने गुरु श्रुतकीति विद्य की आज्ञा से बनाया था। ग्रन्थ में १६ पाश्वास हैं। अन्य की भाषा प्रौढ़ और संस्कृत बहुल है । ग्रन्थ के प्रत्येक माश्वास के अन्त में निम्न पुष्पिका वाक्य पाये जाते हैं-'इति परमपुरुष नायकृत भभत्समद्धत प्रवचनसरित्सरिन्नाथ- सकीति विध चक्रवर्ती पदपपविधान दीपर्वात श्रीमदग्गलदेव विरचिते चन्द्रप्रभ चरिते-दिया है। ग्रन्थ की रचना शक सं०१०११ (वि० सं० ११४६) सन् १०८६ में की गई है। अतः कवि का समय विक्रम की १२वीं शताब्दी है ।
कवि श्रीधर कवि विबुध श्रीधर ने अपनी रचना में अपना कोई परिचय और गुरु परम्परा का उल्लेख नहीं किया। किन्तु इतनी मात्र सूचना दी है कि बलडइ ग्राम के जिन मन्दिर में पोमसेण (पग्रसेन) नाम के मुनि अनेक शास्त्रों का व्याख्यान करते थे।
कवि का समय विक्रम की १३वीं शताब्दी का प्रारम्भ है।
अन्य रचना
कवि की रचना 'सुकमाल चरि' है, जिसमें छह सन्धियाँ और २२४ कडवक हैं, जिनमें सुकुमाल स्वामी का जीवन-परिचय दिया हुआ है। सुकूमाल स्वामी का जीवन प्रत्यन्त पावन रहा है। इसी से संस्कृत अपभ्रंश पौर हिन्दी भाषा में लिखे गए अनेक ग्रन्थ मिलते हैं। प्रस्तुत चरित में कवि ने सुकुमाल के पूर्व जन्म का वृत्तान्त
१. पुणु विक्खिउ तहो तसिरि-रिणवासु, अस्थियण-संघ-बुह पूरियासु ।
परवाइ-कंभि-दारण-मईदु, मिरिचन्दकित्ति जायउ मुरिंगदु। -बट् कमोपदेश प्रशस्ति