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तेरहवीं और चौवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि
३८१ समझा । अपने अपमान का बदला लेने के लिये अर्ककीति और जयकुमार में युद्ध होता है और अन्त में जय कुमार की विजय होती है। उस युद्ध का वर्णन कवि के शब्दों में निम्न प्रकार है :
"भडो कोवि खग्गेण खग खलंतो, रणे सम्मुहे सम्महो प्राणहंतो। भडो कोवि बाणेण बाणो दलतो, समुद्धाइ उद्दुद्धरो णं कयंतो। भडो कोवि कोण कोंत सरतो, करे गाढ चषको प्ररी स पडतो। भडो कोवि खंडेहि खंडो कयंगो, लासं ण मुक्को सगा जो अहंगो । भडो कोवि संगाम भूमि धुलतो, विवण्णोह गिद्धबली णोय अंतो। भडो कोवि धायेण णिवदि ससो, प्रसिया वरेई परीसाण भोसो। भडो कोवि रत्तप्पवाहे तरतो, पुरंतप्पयेणं सडि सिग्ध पतो। भडो कोवि मुक्का उहे धन्न इत्ता, रहे दिण्णयाउ विषण्णोह इत्ता। भडो कोवि इत्थी विसाणेहि भिषणो, भडो का वि कंठो छिपणो णसष्णो। धत्ता-तहि अवसरि णिय रोष्णु पेच्छिवि सरजज्जरियउ।
धावद भुयतोलतु जउ वकु मच्छर भरियउ॥६-१२ युद्ध के समय सुलोचना ने जो कुछ विचार किया था, उसे ग्रन्थकार ने गूंथने का प्रयत्न किया है। सुलोचना को जिनमन्दिर में बैठे हुए जब यह मालूम हुआ कि महतादिक पुत्र, बल और तेज सम्पन्न पांच सौ सैनिक शवपक्ष ने मार डाले हैं, जो तेरी रक्षा के लिये नियुक्त किये गए थे । तब वह मात्म निन्दा करता हई विचार करतो है कि यह संग्राम मेरे काही नआ है जो बहुत से मैनिकों का विनाशक है। प्रतः मुझे ऐसे जोवन से कोई प्रयोजन नहीं । यदि युद्ध में मेघेश्वर (जयकुमार) की जय होगी और मैं उन्हें जीवित देख लूगी तभी शरीर के निमित्त प्रहार करूंगी । इससे स्पष्ट है कि उस समय सुलोचना ने अपने पति की जीवन-कामना के लिये प्राहार का परित्याग कर दिया था। इससे उसके पातिव्रत्य का उच्चादर्श सामने पाता है। यथा
"इमं जंपिऊर्ण पउत्तं जयेणं, तुम एह फण्या मणोहार वण्णा । सुरक्लेह पूर्ण पुरेणेह अणं, तउ जोह लक्खा प्रणेया असंखा। सुसत्था यरिण्णा महं विक्ख विष्णा, रहा चारु चिधा गया जो मयंधा। महंताय पुत्सा-बला-तेय-जुत्ता, सया पसंखा हया वेरिपक्खा। पुरीए गिहाणं बरं तुंग गेहं, फुरतीह पीस मणीलं कराल । पिया तस्य रम्मो वरे चित कम्मे, अरंभीय चिता सुजल्लवत्ता। णिय सोयवंती वर्ण चितर्वती, प्रहं पाष-यम्मा अलम्जा-अधम्मा । महं कज्ज एवं रणं अण्ण जायं.... बहणं जराणं विणास करेणं, महं जीविएणं ग कज्जं प्रणेणं । -
जया हंसताउ स-मेहेसराई, सहे मंगवाई इमो सोमराई। धत्ता-एसयल विसंगामि, जीवियमाण कुमार हो। पेन्छमि होई पवित्ति, तो सरीर माहार हो ।
इस तरह ग्रन्थ का विषय और कथानक सुन्दर है, भाषा सरल मोरप्रसाद गुणयुक्त है। प्रस्तुत ग्रन्थ एक प्रामाणिक कृति है; क्योंकि प्राचार्य कुन्दकुन्द के प्राकृतगाथाबद्ध सुलोचना चरित का पद्धडिया प्रादि छन्दों में अनुवाद मात्र किया है। यह कुन्दकुन्द प्रसिद्ध सारत्रय के कर्ता से भिन्न ज्ञात होते हैं ' ग्रन्थगत चरितभाग बड़ा ही
१.जंगाहा बंधे आसि उत्त, सिरि कुन्द कुन्द-गरिगणा शिकत ।। तं एव्यहि पहियहि करेमि, परि कि पि न गूढ अस्थ देपि॥ -जैन ग्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह भा० २ पृ. १६ उक्त पद्य में निर्देशित कुन्दकुन्द समयसारादि ग्रन्थों के रचयिता कुन्द कुन्द प्रतीत नहीं होते है। कोई दूसरे ही कुन्दकुन्द माम के विद्वान् की रचना सुलोचना चरित होगी। जिसकी देवसेन ने पदडिया छन्द में रचना की है।