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________________ ३५० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ थे, जिनका नाम विमलसेन था। इन्हीं विमलसेन के शिष्य उक्त देवसेन थे जो सेनगण के विद्वान, धर्माधर्म के विशेषज्ञ, संयम के धारक तथा भव्यरूप कमलों के प्रज्ञान तम के विनाशक रवि (सूर्य) थे । शास्त्रों के ग्राहक, कुशील के विनाशक धर्मकथा के प्रभावक, रत्नत्रय के धारक पौर जिन गुणों में अनुरक्त थे। प्रस्तुत देवसेन मम्मलपुरी में निवास करते थे। जैसा कि निम्न प्रशस्ति वाक्य से प्रकट है :--णिव मम्मल्लपुरि हो णिवसंते, चारुद्वाणे गुण गणवंते ।" इससे देवसेन दक्षिण देश के निवासी जान पड़ते हैं। इन्होंने राजा की मम्मलपुरी में रहते हुए सुलोचना चरिउ की रचना राक्षस संवत्सर में श्रावण शुक्ला चतुर्दशी बुधवार के दिन की थी। ग्रन्थ को रचना राक्षस संवत्सर में हुई है। राक्षस संवत्सर साठ संवत्सरों में से ४६ वां संवत्सर है। ज्योतिष को गणनानुसार एक राक्षस संवत्सर सन् १०७५ (वि० सं०११३२) में २९ जुलाई को धावण शुक्ला बुधवार के दिन पड़ता है और दूसरा सन् १३१५ (वि० सं० १३७२)में १६ जुलाई को उक्त चतुर्दशी बुधवार के दिन पड़ता है। इन दोनों समयों में २४० वर्ष का मन्तर है। प्रतः इनमें पहला सन् १०७५ (वि० सं०११३२) इस ग्रन्थ की रचना का सूचक जान पड़ता है। मुनि देवसेन ने अपने से पूर्ववर्ती कवियों का उल्लेख करते हुए बाल्मीकि, व्यास, बाण , मधुर, हलिय गोविन्द, चतुर्मुख स्वयम्भ, पूष्पदन्त और भुपाल कवि का नाम दिया है। इनमें पुष्पदन्त का समय वि० सं० १०३५ के लगभग है। और भूपाल कवि का समय माचार्य गुणभद्र के बाद पोर पं० आशाघर के पूर्ववर्ती है । अतः संभवतः ११वीं के विद्वान जान पड़ते हैं। डा. ज्योति प्रसाद ने जैन सन्देश शोषांक १५ में देवसेन नामक विद्वानों का परिचय कराते हुए लिखा हैकल्याणि के चालुक्य वंश में जयसिंह प्रथम (१.११.१०४२) का उत्तराधिकारी सोमेश्वर प्रथम त्रैलोक्य का नाम माहवमल्ल था जिसका शासन काल लगभग १०४२-१०६५ ई०) था, पौर जिसका उत्तराधिकारी सोमेश्वर द्वितीय भूवनेकमल्ल (१०६८-१०७५ ई.) था। सोमेश्वर प्रथम नाम का राजा सामान्यतया त्रैलोक्यमल्ल नाम से प्रसिद्ध था, बड़ा प्रतापी था, दक्षिण भारत का बहुभाग उसके भाषीन था। मम्मल नगर भी उसके राज्य में था। मतएव गंड विमुक्त रामभद्र का समय भी लगभग सन् १०४०-१०७० ई. में होना चाहिये और उनकी तीसरी पीढ़ी में होने वाले देवसेन ५० वर्ष पीके (१९२०ई०) में होने चाहिए। उक्त सा० सा० ने लिखा है एक प्रत्य गणना के अनुसार राक्षस संवत १०६२-६३ ई०, ११२२-२३ ई० और ११५२-५३ ई० की तिथि में पड़ता था । इन तीनों तिषियों में से ११२२-२३ ई० की तिथि ही पषिक संगत प्रतीत होती है। डा. ज्योति प्रसाद के द्वारा बतलाई तिथि में और ऊपर की ज्योतिष के अनुसार बतलाई तिथि में ४८ वर्ष का अन्तर पड़ता है। विद्वानों को इस सम्बन्ध में विचार कर प्रस्तुत देवसेन का समय मानना चाहिए। वे १२वों शताब्दी के विद्वान जान पड़ते हैं। रचना मुमि देवसेन की एकमात्र कृति 'सुलोयणाचरिउ है। प्रस्तुत ग्रन्थ की २५ सन्धियों में भरत चक्रवर्ती, (जिनके नाम से इस देश का नाम 'भारतवर्ष' पड़ा है) के सेनापति जयकुमार की धर्म पत्नी सुलोचना का, जो काशी के राजा अकम्पन और सुप्रभा देवी की सुपुत्री थी, चरित अंकित किया गया है। सुलोचना पनुपम सुन्दरी थी। इसके स्वयम्बर में अनेक देशों के बड़े-बड़े राजागण पाये थे। सुलोचना को देखकर वे मुग्ध हो गए। उनका हृदय क्षब्ध हो उठा और उसकी प्राप्ति की प्रबल इच्छा करने लगे। स्वयंवर में सुलोचना ने जयकुमार को चुना, उनके गले में वरमाला डाल दी। इससे चक्रवर्ती भरत का पुत्र अर्ककीर्ति कुर हो उठा, और उसने उसमें अपना अपमान १. प्रस्तुत मम्मलपुर तमिल प्रदेश का मम्मलपुर जान पड़ता है जिसका निर्माण महामल्स पल्लव ने किया था, जैसा कि डा.दशरथ शर्मा के निम्न बाप से प्रकट है। -Mammalpuram foundedby Mahamalla Pallava जन ग्रंथ प्र०सं०भा०२ काफुठनोट २. रक्खस-संबच्छरवह-दिवसए, सुपक-चाउसि सावरण मासए । चरित मुनोयपाहि गिप्पाउ, सह-अत्थ-वण्णण-संपुष्याउ || जैन ग्रंथ शप्रस्ति से० प्रा०२१२०
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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