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________________ ६-२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ सुन्दर है; क्योंकि जयकुमार और सुलोचना का चरित स्वयं ही पावन रहा है । १५ वीं शताब्दी के कवि रहछू ने अपने मेघेश्वर चरित में "मेहेसरहु चरिउ सुर सेणे - वाक्य द्वारा उसका उल्लेख किया है । मुनि देवचन्द्र ये मूलसंघ देशीय गच्छ के विद्वान मुनि वासवचन्द्र के शिष्य थे जो रत्नत्रय के भूषण, गुणों के निधान तथा अज्ञान रूपी अंधकार के विनाशक भानु (सूर्य) थे। प्रशस्ति में उन्होने अपनी गुरु परम्परा निम्न प्रकार दी है श्री कीर्ति, देवकीर्ति, मौनिदेव, माधवचन्द्र, अभयनंदी, वासवचन्द्र और देवचन्द्र । इस गुरु परम्परा के अतिरिक्त ग्रन्थकर्ता ने रचना समय का कोई उल्लेख नहीं किया, हां रचना का स्थल गुर्दिज्ज नगर का पार्श्वनाथ मन्दिर बतलाया हैं जो कहीं दक्षिण में अवस्थित होगा । वासवचन्द्र नाम के दो विद्वानों का उल्लेख मिलता है। प्रथम वासवचन्द्र का उल्लेख सं० २०११ वैशाख सुदि ७ सोमवार के दिन उत्कीर्ण किये गए खजुराहो के जिननाथ मन्दिर के लेख में हुआ है जो राजा धंग के राज्य काल में उत्कीर्ण हुआ था । दूसरे वासवचन्द्र का उल्लेख श्रवण वेल्गोल के ५५ वें शिलालेख में पाया जाता है जो शक सं० १०१२ (वि० सं० ११४७ ) का खोदा हुआ है । उसके २५ वें पद्य में वासवचन्द्र मुनि का नामोल्लेख है, जिनकी बुद्धि कर्कश तर्क करने में चलती थी, और जिन्हें चालुक्य राजा की राजधानी में बाल सरस्वति की उपाधि प्राप्त थी । " यदि ये देवचन्द्र वासवचन्द्र के गुरु हों तो इनका समय विक्रम की १२वीं शताब्दी हो सकता | ग्रन्थ प्रशस्ति में वासवचन्द्र सूरि को अभयनन्दी का दीक्षित शिष्य बतलाया है और लिखा है कि उन्होंने चारों कषायों को विनष्ट किया था, जो भव्यजनो को श्रानन्ददायक थे, और जिन्होंने जिन मन्दिरों का उद्धार किया था, जैसा कि निम्न वाक्य से प्रगट है - 'उद्धरियइ जे जिणमदिराइ ।' उन्हीं के शिष्य देवचन्द्र थे । ग्रन्थ के भाषा साहित्यादि पर से वह १२वीं १३वीं शताब्दी से पूर्व की रचना नहीं जान पड़ती। चरित्र भी सामान्यतया वही है । उसमें कोई खास वैशिष्ट्य के दर्शन होते । प्रस्तुत ग्रन्थ में ११ संन्धियों और २०२ कडवक हैं। जिनमें भगवान पार्श्वनाथ वा चरित्र-चित्रण किया गया है । कवि ने दोधक छन्द में पार्श्वनाथ की निश्चल ध्यानमुद्रा को अंकित है, उससे पाठक ग्रन्थ की शैली से परिचित हो सकेंगे । तत्य सिलायले यक्कु जिणो, संत महंतु तिलोम हो बंदी, पंचमहाय-उद्दय कंधो, निम्म बत्त चच विह बंघो । जीवदया वह संग विक्को, णं यह लक्खणु धम्मु गुरुक्को । जन्म - जरामरणुज्भिय वप्पो वारसभेयतवस्स महप्पो । मोह समंध पाव-पयंगो, खंतिलयासहणे गिरितुगो । संजम - सील बिसिय हो, कम्म कसाय हुआासण हो । पुष्कं धरण वर तोमर धंसो मोक्ख-महासरि कोलन हंसो । इन्दिय-सम्पविसहर येतो, प्रप्पसरूद समाहि-सरतो केवल नाण- पयासण- कं, धाण पुरम्मि नियेसिय चक्खू । णिज्जिय सासु पलंदियवाहो, णिच्चल बेह विसिज्जय-बाहो । कंचन से जहां थिरचित्तो, दोषक छंद इमो त्रुह बुतो ॥" इसमें बतलाया गया है कि भगवान पार्श्वनाथ एक शिला पर ध्यानस्थ बैठे हुए १. दिज्ज नरि जिपासहम्मि, निवसतु संतु संजय - सम्म । २. See Epigraphica Indca Vol T Page 36 २. वासवचन्द्रमुनीन्द्रोद्रस्यादतर्फ कर्कश - विषणः । चालुक्यकटकमध्ये बालसरस्वतिरिति प्रसिद्धिः प्राप्तः 11 । वे सन्त महन्त - जन पन्थ प्रश० भा०२ पृ० २४ जनशिला ले० सं० भा० १ लेख २५ ।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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