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जैन धर्म का प्राचीन इतिहाम- भाग २ वृत्यवंश शतेनेति कर्वता तत्वभावना। सद्योऽमितगतेरिष्टा निवृत्तिः क्रियते करे ।
__ 'इति द्वितीय भावना समाप्ता' इससे यह कोई बड़ा ग्रन्थ होना चाहिये जिसका यह दूसरा अध्याय है।
भावना द्वात्रिशतिका-यह ३२ पद्यों का एक छोटा-सा प्रकरण है। इसको कविता बड़ो सुन्दर और कोमल है। इसे पढ़ने से बड़ो शांति मिलती है। इसका हिन्दी अंग्रेजी भाषा में अनुवाद हो चुका है। वहत से लोग इसे सामायिक के समय इसका पाठ करते हैं ।
ब्रह्म हेमचन्द्र हेमनन्द ने अपनी गुरु परपरा और गण दिन का उल्लेख नहीं किया। उन्होंने प्राकृत भाषा में 'श्रतस्कन्ध' की ६४ गाथाओं में रचना की है। जिसे उन्होंने तिलंग देश के के डनगर के चन्द्रप्रभ जिन मन्दिर में रामनन्दी संद्धान्तिक के प्रसाद से देशयती हेमचन्द्रने बनाकर समाप्त किया था। ग्रन्थ में कोई रचना काल नहीं दिया। इस कारण ब्रह्म हेमचन्द्र कब हुए यह विचारणीय है।
एक रामनन्दी का उल्लेख नयनन्दी (वि० सं० ११००) के सुदर्शन चरित की प्रशस्ति में पाया जाता है जिसमें वृषभ नन्दी के बाद रामनन्दी का उल्लेख किया है। और सकल विधि विधान की प्रशस्ति में अंबाइय और कंचीपुर का उल्लेख करते हुए बल्लभराय द्वारा निर्मापित प्रतिमा का उल्लेख किया है और बताया है कि वहां गुणमणि निधान' रामनन्दी और जयकोति मौजूद थे। और प्राचार्य रामनन्दो के शिष्य बाल वन्द ने सकल विधि विधान ग्रन्थ बनाने को प्रेरणा की थी। इस कारण ये रामनन्दो विक्रमकी ११वीं शताब्दी के प्राचार्य हैं।
दूसरे रामनन्दी का उल्लेख अम्गलदेव के चन्द्रप्रभ पुराण में आया है और उन्हें नमस्कार किया गया है। अग्गलदेवने उक्त पुराण शक सं० ११११ (वि० सं० १२४६) में बनाकर समाप्त किया है । अतः रामनन्दी सं० १२४६ से पूर्व वर्ती हैं । जहां तक संभव है प्रथम रामनन्दी के प्रसाद से ही हेमचन्द्र ने श्रुतस्कंध बनाया हो। यदि यह ठीक हो तो ब्रह्म हेमचन्द्र ११वीं शताब्दी के विद्वान हो सकते हैं।
श्रतस्कन्ध में श्रत का स्वरूप और अंग-पूर्वोके पदों का प्रमाण बतलाते हुए भगवान महावीर के बाद थत परम्परा किस तरह चली इसका विवरण दिया गया है। परम्परा वही है जिसका उल्लेख तिलोयपण्णत्ती । धबला, जयधवला, इन्द्र नन्दि श्रुतावतार, और हरिवंश पुराण प्रादि में पाई जाती है ।
पद्मनन्दी पदमनन्दी--मलसंघ काणरगण तित्रिणी गच्छ के सिद्धान्त चक्रेश्वर पद्मनन्दो थे। उन्हें कदम्ब कूल के कीर्ति देव की पट्र महिषी माललदेवी ने ब्रह्म जिनालय को दैनिक पूजा और मुनियों के आहार के लिये पद्मनन्दि सिद्धान्त चक्रवतों के लिये पाद प्रक्षालन पूर्वक 'सिडणिवल्लिन' को प्राप्त कर दान दिया। यह लेख शक सं०१६ सन् १०७५ का उत्कीर्ण किया हुआ है। इससे इन पमनन्दि का समय ईसाकी ११वीं सदी का अन्तिम पाद है।
कनकसेन (द्वितीय) प्रस्तुत कनकरोन चन्द्रिकावाट सेनात्यय के विद्वान आचार्य अजितसेन के दीक्षित शिष्य थे। जो मान-मद १ 'जहि रमणंदि गुण-मरिण-णिहाणु । जयक्रित्ति महाकिसि वि पहाणु ।'
जैन नथ प्रशस्ति सं० भा० २१० २७ २ तहिं रिगए वि भवाहिणरिणा, सुरिणा महारामणंदिणा, बालहंदु-सीसेगा जंपियं; सपलविहि गिहारा मणियं ।
जैन ग्रंथ प्रशस्ति सं०भा० २ पृ. २७ ३ जैन लेख सं० भा०२ पृ. २६६-२७०