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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग २ मान-अपमान में समान बने रहते हैं, वही सच्चे श्रमण हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है कि जो श्रमण शत्रु और बन्धु वर्ग में समान वृत्ति हैं । सुख-दुख में समान हैं लोह प्रौर कंचन में समान हैं जीवन-मरण मैं समान है. वेश्रण है: समसत्तु बंधु वग्गो समसुह दुक्खो पसंस-णिवं-समो। समलोट्ट कचणो पुण जीविय मरणे समो समणो॥ जो पांच समितियों, तीन गुप्तियों तथा पांच इन्द्रियों का निग्रह करने वाला है, कषायों को जीतने वाला है, दर्शन, ज्ञान, चरित्र सहित है वही श्रमण संयत कहलाता है। पंच समिदो तिगुत्तोपंथेविय संवडो जिदकसानो। दसणाणाण समागो समणो सो संजदो भणियो ।। स्थानाङ्ग सूत्र (५) की निम्न गाथा श्रमण के व्यक्तित्व और उनकी जीवन वृत्ति पर अच्छा प्रकाश डालत है। उरग-गिरि-जलण-सागर-णहतल-तरुणणसमोर जा होई। भमर-निय-धरणि-जलरह-रवि-पक्षणसमोन सो समणो ।। जो उरग सम (सर्प के समान) परकृत गुफा मठादि में निवास करने वाला, गिरिसम-पर्वत के समान प्रचल, ज्वलनसम-अग्नि के समान प्रतृप्त-अग्नि जैसे तृणो से अतृप्त रहती है, उसी तरह तप-तेज संयुक्त श्रमण सूत्रार्थ चिन्तन में अतृप्त रहता है। सागरसम-समुद्र के समान गंभीर, आकाश के समान निरालम्ब, भ्रमर के समान अनियत वृत्ति, मग के समान संसार के दुखों से उद्विग्न, पृथ्वी के समान क्षमाशील, कमल के समान देह भोगों से निलिप्त, सूर्य के समान बिना किसी भेद भाव के ज्ञान के प्रकाशक और पवन के समान अवरुद्धं गति, श्रमण ही लोक में प्रतिष्ठित होते हैं । ऊपर जिन श्रमणों का स्वरूप दिया गया है वे ही सच्चे थमण हैं। प्रनियोग द्वार में श्रमण पाँच प्रकार के बतलाये गये हैं, निर्गन्ध, शाक्य, तापस, गेरुय और प्राजीवक । इनमें अन्तबाह्य ग्रन्थियों को दूर करने वाले विषयाशा से रहित, जिन शासन के अनुयायी मुनि निग्रंथ कहे जाते हैं। सुगत (बुद्ध) के शिष्य सुगतः या शाक्य कहे जाते हैं, जो जटाधारी हैं, वन में निवास करते हैं वे तापसी हैं, रक्तादि वस्त्रों के धारक दण्डी कहलाते हैं। जो गोशालक के मत का अनुसरण करते हैं वे प्राजीवक कहे जाते हैं। इन श्रमणों में निर्गन्थ श्रमणों का दर्जा सबसे ऊँचा है, उनका त्याग और तपस्या कठोर होती है, वे ज्ञान और विवेक का अनुसरण करते हैं। ऐसे सच्चे श्रमण ही श्रमण संस्कृति के प्रतीक है। इस श्रमण संस्कृति के आद्य प्रतिष्ठापक आदि ब्रह्मा ऋषभदेव हैं जो नाभिराय और मरुदेवी के पुत्र थे, और जिनके शत पूत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम से इस देश का नाम भारत वर्ष पड़ा है। महाँ बन्ध में प्रज्ञा श्रमणों को नमस्कार किया गया है । (णमो पण्ह समणा')। १. निग्गंथ सक्क ताबस मेरू पाजीव पंचहा समणा । तम्मिय निगंथा तेबे जिरण सासराभवा मुरिगणो । सबकाय सुगय सिस्सा जे जरिला तेउ ताबसा भणिया। जे गोसाल गमय मणु जे घाउरत्तवत्या तिदण्डिगो गेल्या तेण ॥ सरति यन्नति तेउ आजीवा -(अनुयोगवार अ १२० २. नाभे: पुनश्च ऋषभः ऋषभद् भरतोऽभवत् । तस्य नाम्नः त्विदं वर्ष मारतं चेति कीय॑ते ।। (विष्णपुराण ब.१ अग्नीध्र सूनो नाभेस्तु ऋषभोऽभूतसुतो द्विजः । ऋषभाद् भरतो जो वीरः पुत्र शताबरः॥ येषो खलु महायोगी परतो ज्येष्ट श्रेष्ठ गुण बासीत । येनेदं वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति ॥ भागवत ५-६ .
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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