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________________ प्रस्तावनी बौद्ध परम्परा में भी श्रमणों का उल्लेख है। धम्मपद में लिखा है कि जो अणु और स्थूल पापों का पूर्ण रूप से शमन करता है वह पापों का शमन करने के कारण समण है। "यो च समेति पापानि अणुथूला निसव सो। सम्मितत्ताति पापानं समणेति पश्चति ॥" (१६-१०, इसी धम्मपद (२६-६) में एक अन्य स्थान पर लिखा है 'समुचरिया समणोति बच्चति'। समानता की प्रवृत्ति के कारण 'समण' कहा जाता है धम्मपद (१६-६) में बतलाया है कि व्रत हीन तथा झूठ बोलने वाला व्यक्ति केवल सिर मुड़ा लेने मात्र से 'समण' नहीं हो जाता, जो इच्छा और लोभ से व्याप्त है वह 'समण' कसे हो सकता है? 'मुंडके न समणो अन्वत्तो अलक भणं । इच्छा लोभ समापन्नो समणो कि भविस्सति।" प्राचार्य कुन्द कुन्दने श्रमण धर्म का सुन्दर व्याख्यान किया है, और बतलाया है कि जो दुःखों से उन्मुक्त होना चाहता है उसे श्रामण्य धर्म को स्वीकार करना चाहिए-"पडिवज्जवु सामण्णं जवि इच्छदि बुक्खपरिमोक्खं'। इससे श्रमण धर्म की महत्ता का बोध होता है। जिनसेनाचार्य ने महापुराण में ऋषभदेव को वात रसना बतलाते हए उसका अर्थ नग्न किया है:-'दिग्वासा वातरसनो निन्थेशो निरम्बरः। (२५-२-४)। वैदिक साहित्य में भी श्रमण का उल्लेख उक्त अर्थ में किया गया है। भागवत के (१२-३-१६) के मनुसार श्रमण जनम: सन्तुष्ट मामा और गो भावना गे गुल्ल, शान्त दान्त, तितिक्ष, अत्मा में रमण करने वाले और समदृष्टि कहे गये हैं। सन्तुष्टाः करुणा मैत्राः शान्ता वान्तास्तितिक्षवः । मात्मारामाः समशः प्रायशः श्रमणा जमा ॥ इसी ग्रन्थ में वातरशना श्रमणों को आत्मविधा विशारद ऋषि, शान्त, संन्यासी और अमल कह कर ऊध्र्वगमन द्वारा उनके ब्रा लोक में जाने की बात कही है। "श्रमणा वातरशना प्रात्मविद्या विशारदः" (श्री भागवत् १२-२-२०) "पातरशनाय ऋषयः श्रमणाऊर्ध्वमन्यितः । ब्रह्माख्यं धाम ते यान्ति शान्ताः सन्यासिनोऽमलाः (श्री भाग. वैदिक साहित्य में 'श्रमण' का उल्लेख अनेक ग्रन्थों में मिलता है ऋग्वेद में वातरशना मुनि का उल्लेख किया गया है, उसमें उनके सात भेद भी बतलाये हैं। पर उन सब वातरशना मुनियों में ऋषभ प्रधान थे। क्योंकि अर्हत धर्म की शिक्षा देने के लिए उनका अवतार हुआ बतलाया है। . "मुनयो वातरशना पिशंगा धशते मला । वात स्थान प्राजि यान्ति यह वासो प्रविक्षत ।। उन्मादिता मौनेयेन वातां प्रातस्थिमा वयम् । शरीरेहस्माकं यूयं मर्ता सो अभिपश्यथ ।।" (ऋग्वेद १०-१३६, २, ३) अतीन्द्रियार्थ दर्शी वातरवाना मुनि मल धारण करते हैं जिससे वे पिंगल वर्ण दिखाई देते हैं, जब वे वाय की गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते हैं-रोक लेते हैं तब वे अपने तपश्चरण की महिमा से दीव्यमान हो कर देवता रूप को प्राप्त हो जाते हैं। सर्वलौकिक व्यवहार को छोड़कर हम मौन वृत्ति से उन्मत वत (उत्कृष्ट मानन्द सहित) वायु भाव को-अशरीरी ध्यान वृत्ति को प्राप्त होते हैं, और तुम साधारण जन हमारे बाह्य शरीर मात्र को देख पाते हो, हमारे सच्चे प्राभ्यन्तर स्वरूप को नहीं, ऐसा वे वातरशना मुनि प्रकट करते हैं । ऋग्वेद को उक्त ऋचाओं के साथ केशी की स्तुति की गई है१. जूनि-यातजूनि-विप्रजूनि-वृषाणक -करिकृत-एतषाः ऋषिङ्गः एते वातरशना मनुयः । (ऋग्वेद मं० १० सूक्त १३५)
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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