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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास---भाग २
इसी संधि के १५वें कड़वक में द्रोपदी के अपमान से ऋद्ध भीम का और कीचक का परस्पर बाहु युद्ध का वर्णन भी सजीव हुआ है :---
रण में कुशल भीम और कोचक दोनों एक दुसरे से भिड गए। दोनों ही हजारों युवा हाथियों के समान बलवाले थे। दोनों ही पर्वत के बड़े शिखर के समान लम्बे थे। दोनों ही मेघ के समान गर्जना वाले थे। दोनों ने ही अपने अपने ओंठ काट रखे थे, उनके मुख क्रोध से तमतमा रहे थे । नेत्र गुंजा (चिरमटी घु वची) के समान लाल हो गए थे। दोनों के बक्षस्थल आकाश के समान विशाल और दोनों के भुजदण्ड परिधि के समान प्रचंड थे।
कवि ने शरीर की असारता का दिग्दर्शन करते हुए लिखा है कि मानन' का यह शरीर कितना धिनावना और शिरानों-स्नायुओं से बंधा हा अस्थियों का एक ढांचा या पोट्टल मात्र है। जो माया और मदरूपी कचरे से सड़ रहा है, मल पंज है, कृमि कीटों से भरा हमा है, पवित्र गव वाले पदार्थ भी इससे दुर्गन्धित हो जाते हैं, मांस और रुधिर से पूर्ण चर्म वृक्ष से घिरा हमा है.--चमड़े की चादर से ढका हुआ है, दुर्गन्ध कारक आंतों की यह पोटली और पक्षियों का भोजन है। कलुषता से भरपूर इस शरीर का कोई भी अंग चंगा नहीं है। चमड़ी उतार देने पर यह दुष्प्रेक्ष्य हो जाता है, जल बिन्दु तथा सूरधन के समान अस्थिर और विनश्वर है। ऐसे घुणित शरीर से कौन ज्ञानी राग करेगा? यह विचार ही ज्ञानी के लिये वैराग्यवर्धक है।
तीसरीकृति स्वयंभू छन्द ग्रन्थ है, जो प्रकाशित हो चुका है और जिसका सम्पादन एच. डी. वेलकर ने किया है। त्रिभुवन स्वयंभू ने उन्हें, 'छन्द चूड़ामणि' कहा है। इससे वे छन्द विशेषज्ञ थे, इसका सहज ही आभास हो जाता है। इस ग्रंथ में प्राकृत और अपभ्रंश भाषा के छन्दों का स्वरूप मय उदाहरणों के दिया गया है। इसके अन्तिम अध्याय में गाहा, अडिल्ल, और पद्धडिया प्रादि स्वोपज्ञ छन्दों के उदाहरण दिये हैं। उनमें जिनदेव की स्तुति है । ग्रन्थ के अन्त में कोई परिचयात्मक प्रशस्ति नहीं है। इस ग्रन्थ का सबसे पुरातन उल्लेख जयकोति ने अपने छन्दोनुशासन में किया है। जिसमें स्वयंभ के नन्दिनी छन्द का उल्लेख है। इससे स्पष्ट है कि स्वयंभ के छन्द ग्रन्थ का १०वीं शताब्दी में प्रचार हो गया था। जयकीति का समय विक्रम की दशमी शताब्दी है। जयकीति कन्नड प्रान्त के निवासी और दिगम्बर जैन धर्म के अनुयायी थे। स्वयंभ छन्द ग्रन्थ में अपने ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थ कर्ताओं के भी उदाहरण दिये हैं। 'बम्मह लिलब' के उदाहरण में (६-४२ में) पउमचरिउ की ६५वीं सन्धि का पहला पद्य दिया है । रणावली' के उदाहरण में (६-७४) में ७७वों सन्धि के १३वें कडवक का अन्तिम पद्य है । इस तरह यह उंद ग्रन्थ महत्वपूर्ण है।
त्रिभुवनस्वयंभू ने, जो स्वयंभू का लघुपुत्र था उसने अपने पिता के पउमचरिउ, हरिवंशपुराण और पंचमी चरित को सम्हाला था, उनका समय १०वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। इसका अलग परिचय नहीं लिखा।
स्वयंभू देव ने 'पंचमीचरिउ' ग्रन्थ भी बनाया था। किन्तु वह अनुपलब्ध है। पउमचरिउ में लिखा है कि १.तो भिडिवि परोधयरण कुराल, विष्णि वि एवणाय सहस्स-बल । विपिए वि गिरि तंग-सिंग सिहर, दिगिणधि जल हरख गहिर गिर । विपिण वि दट्टो8 रुद्द बयण, विणि वि गंजाल सम-णपण । विषिण वि गह्मल गिरु-वच्छपल, विणि वि परिहोवम-भुज-जुयल ।
- रिट्ठरणेमिचरित २८-१५ २. देखो, रिट्ठाणे मिचरिउ ५४-११ ३. तुम्ह प कमलमूले अम्हं जिण दुक्ख भावत विपाई। ढुरु लुल्लियाई जिएवर जं जारपसु तं करेज्जासु ।।३८ ---जिणगामें छिदेवि मोहजाल, उपज्जह देवल्लसामि सालु। जिगणामें कम्मई णिद्दलेषि, मोक्नग्गे पइसिन सुह लहेवि ।।४४ ४. जयकीति ने अपने छन्द ग्रन्थ में स्वयंभ के नन्दिनी छन्द का उल्लेख किया है।
तो यो तथा पप पनिर्जितो जरौ, स्वयंभुदेवेश मते तु नन्दिनी ॥२२॥ ५. हणवंत रणे परिदेविजई रिसियरेहि । रणं गयणयले बालदिवायर जलहरेहि ।। ६. सुरवर डामरु रावणु दट्ट जासु जगकंबइ। अभा कहि महु चुक्क एवणाइ सिहि जपइ ।।