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________________ नवमी दशवी शताब्दी के आचार्य १६५ यदि स्वयंभू देव के लघुपुत्र त्रिभुवन न होते तो उनके पद्धडियाबद्ध पंचमी चरित' को कौन संभारता? इससे स्पष्ट है कि स्वयंभू ने पंचमी चरित की रचना की थी। स्वयंभू व्याकरण-- स्वयंभूदेव ने स्वयंभू छन्द के समान अपभ्रंश का व्याकरण भी बनाया था। पउमचरिउ के एक पा में लिखा है कि अपभ्रश रूप मतवाला हाथी तब तक ही स्वच्छन्दता से भ्रमण करता है जब तक कि उस पर स्वयंभू व्याकरण रूप अंकुश नहीं पड़ता। इससे उनके व्याकरण ग्रथ बनाये जाने का स्पष्ट निर्देश है, पर खंद है कि वह अनुपलब्ध है। अभयनन्दि अभयनन्दि--ध्याकरण शास्त्र के निष्णात विद्वान थे। इनका व्याकरण-विषयक ज्ञान केवल जनेन्द्र प्याकरण तक ही सीमित नहीं था, किन्तु पाणिनीय व्याकरण और पतंजलि महाभाष्य में भी उनकी अप्रत्याहत गति थी। अभयनन्दि की एक मात्र कृति 'महावृत्ति' है, जो जनेन्द्र व्याकरण की सबसे बड़ी टीका है। महावृत्ति के स्थल उनके व्याकरण विषयक अभूत पूर्व पाण्डित्य का निदर्शन कराते हैं। यथा-११२१६६ सूत्र को व्याख्या में 'प्रवितप्य' प्रयोग की सिद्धि के सम्बन्ध में जो विचार किया है वह अन्यत्र नहीं मिलता। महला -- अभयनन्दि कृत महावृत्ति का परिमाण बारह हजार श्लोक जितना है। यद्यपि महावृत्ति कारने काशिका का उपयोग किया है, किन्तु दोनों की तुलना करने से ज्ञात होता है कि अभय नन्दि ने जो उदाहरण दिय हैं। वे काशिका में उपलब्ध नहीं होते। जैसे-१।४।१५ के उदाहरण में अनुशालिभद्रम् प्राड्याः । ‘अनुसमन्तभद्र ताकिका:' ४११११६ के उदाहरण से 'उपसिंह नन्दिनं कवयः' । 'उपसिद्धसेन वैयाकरणाः'। सब वैयाकरण सिद्धसेन से हीन हैं। १।३१० के उदाहरण में 'पा कुमार यशः समन्तभद्रस्य' वाक्यों द्वारा समन्तभद्र, सिहन्दि और सिद्धसेन का नामोल्लेख है। महावृत्ति के सूत्र ३।२१५५ की टीका में एक स्थल पर अकलङ्ग देव के तत्त्वार्थवार्तिक का उल्लेख किया है । अत: अभयनन्दी का समय अकलंक देव के बहुत बाद का जान पड़ता है। लक्षणमवज पारमन्यै, रव्यक्तमुक्तिमभिधानविधौदरिद्रः। सत्सर्वलोकहग्यप्रियचारुवाक्य व्यक्ती करोत्यभयनन्दिमुनिः समस्तम् ।। कठिनता से पार पाने योग्य जिस शब्द लक्षण को दरिद्रों ने व्याख्या करने में स्पष्ट नहीं किया। उस सम्पूर्ण शब्द लक्षण को अभयनन्दि मुनि सबके हृदयों को प्रिय लगने वाले सुन्दर वाक्यों से स्पष्ट करता है। इस श्लोक के पूर्वाध से स्पष्ट जान पड़ता है कि अभयनन्दि से पूर्व जैनेन्द्र व्याकरण पर भनेक वृत्तियां बन चकी थीं। जिनमें सूत्रों की पूर्ण और स्पष्ट व्याख्या नहीं थी। इससे महावृत्ति की महत्ता का स्पष्ट बोध होता है। अभयमन्दी ने अपने समय का कोई उल्लेख नहीं किया और किस राजा के राज्यकाल में ग्रन्थ का निर्माण हया, इसका भी उल्लेख नहीं किया। प्रतः अभयनन्दी का समय विवादास्पद है। डाक्टर वेल्वेक्कर ने अपने 'सिस्टम आफ संस्कृत ग्रामर' में अभयनन्दी का समय सन् ७५३ (वि० मं० ८०७) माना है। पर महावृत्ति का अध्ययन करने से महावृत्ति का रचनाकाल हवीं शताब्दी ज्ञात होता है । अनन्तवीर्य प्रनन्तवीयं-रविभद्र पादोपजीवी थे। इनकी एक मात्र कृति "सिद्धि विनिश्चय' टीका है । यह प्रकलङ्क वाङ्मय के पंडित थे। और उनके विवेचक और मर्मज्ञ थे। प्रभाचन्द्र ने इनकी उक्तियों से अकलङ्ग देबके दुरवगाह ग्रन्थों का अच्छा अभ्यास और विवेचन किया था। प्राचार्य अनन्तवीर्य की सिद्धि विनिश्चय टीका बड़ी ही महत्वपूर्ण है, उसमें दर्शनान्तरीय मतों की विस्तृत आलोचना की गई है। टीका में धर्मकीति, अर्चट, धर्मोत्तर और प्रज्ञाकर गृत आदि प्रसिद्ध विद्वानों के मतों के अवतरण उद्धत किये हैं। इनके अतिरिक्त अनन्तवीर्य टीका में 'ऊहो मति मिबन्धनः वाक्य उद्धृत किया है। विद्यानन्द के तत्वार्थरलोक वार्तिक पृष्ट १६६ में यह वास्य इस रूप में उपलब्ध है: 'समारोपच्छिद्रहोऽत्र मानं मतिनिबन्धमः' (तत्वा० श्लो०१-१३-६० ७. जहण हुअ छन्द चूडामणिस्म तिहुअरणसयंभु लहु तर उ । तो पद्धडिया कब सिरि पंचमि को समारेउ।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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