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________________ १५वी १६वीं १७वी और १९वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि उदार था । कायस्थ जाति में और भी अनेक विद्वान हुए हैं जिन्होंने जैनधर्म को अपनाकर अपना कल्याण किया है। मौर कितने ही अच्छे कवि हए हैं जिनकी सुन्दर एवं गंभीर रचनात्रों से साहित्य विभुषित है। कितने ही लेखक हए हैं। कवि ने यह ग्रंथ अमरसिंह के पुत्र लक्ष्मण के नामांकित किया है क्योंकि बह इन्हीं की सत्प्रेरणादि को पाकर ग्रन्थकार उसके बनाने में समर्थ हसा है। प्रशस्ति में कहीं पर भी रचनाकाल दिया हुमा नहीं है, जिससे कवि का समय निश्चित किया जाता । हां, प्रशस्ति में कवि ने अपने से पूर्ववर्ती कवियों का स्मरण जरूर किया गया है, जिनमें समन्तभद्र, भट्ट अकलंक, पूज्यपाद (देवनन्दी) जिनसेन, रविषेण, गुणभद्र वट्ट केर, शिवकोटि, कुन्दकुन्दाचार्य, उमास्वाति, सोमदेव, वीरनन्दी धनंजय, असग, हरिचन्द्र जयसेन और अमितगति (द्वितीय) 1 इन नामों में हरिचन्द्र और जयसेन ११वीं प्रौर १३वीं शताब्दी के विद्वान हैं। किन्तु इस प्रशस्ति में मलयकीति और कमलकीर्ति नाम के विद्वान भट्टारक का भी उल्लेख है, जिनका समय विक्रम की १५वीं शताब्दी है। प्रतः यह रचना भी १५वीं शताब्दी की जान पड़ती है। कवि कोटीश्वर इनके पिता तम्मण सेट्टि तुलुदेशान्तर्गत बइदूर राज्य के सेनापति थे। इनकी माता का नाम रामक, बड़े भाई का नाम सोमेश और छोटे भाई का नाम दुर्ग था। संगीतपुर के नगर सेठ 'कामसेणही' इनका जामाता था। श्रवण बेलगुल के पण्डित योगी के शिष्य प्रभाचन्द्र इनके गुरु थे। संगीतपुर के नेमिजिनेन्द्र इनके इष्टदेव थे और संगीतपर के राजा संगम इनके पाश्रय दाता थे। इन्ही के आदेश से कवि कोटीश्वर ने जीवन्धर षट्पदी, नाम के प्रन्य की रचना की थी। बिलगि ताल्लुके के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि श्रुतकीर्ति संगम के गुरु थे और इन्ही अतिकीर्ति सशिष्य परापरा में कर्नाटक शब्दानशासन' के क िभटटाकलंक (१६०४) पांचवें थे। कोटीश्वर ने जीवन्धर षट पदी में अपने पूर्ववर्ती गुरुओं की स्तुति विजयकीर्ति के शिष्य श्रुतकीति पर्यन्त की है । इससे कोटीश्वर का समय ई० सन १५०१ के लगभग जान पड़ता है। जीवंधरषट् पदी को एक ही अपूर्ण प्रति प्राप्त हुई है, जिसमें प्रध्याय के और दशवें अध्याय ११६ पद्य दिये हए हैं। इसके मंगलाचरण में कवि ने कोण्डकुन्द, समन्तभद्र, पंडित मुनि, धर्मभूषण, भट्टाकलंक, देवकीति, मुनिभद्र, विजय कीति, ललितकीति और श्रुतकीर्ति प्रादि गुरुनों का स्तवन किया है। और पूर्ववर्ती कवियों में जन्न, नेमिचन्द्र, होन्न, हंपरस, अम्गल, रन्न, गुणवर्म औरनागवर्म का स्मरण किया है। कवि का समय ईसा की १५वीं शताब्दी का उपान्त्य पौर विक्रम सं० १५७८, सोलहवीं का उत्तराद्धं है। पंडित खेता पंडित खेता ने अपना कोई परिचय अंकित नहीं किया । पौरन अपनी गुरु परम्परा का ही उल्लेख किया है। इनकी एक मात्र कृति 'सम्यक्त्व कौमुदी' है, जो तीन हजार श्लोकों के प्रमाण को लिए हुए है। इस ग्रन्य की यह प्रति सं० १६६६ की माघ यदि ५ गुरुवार के दिन जहांगीर बादशाह के राज्य में श्रीपथ (वयाना) में लिखी गयो यह प्रति सं० १६८६ ज्येष्ठ कृष्णा १३ को शुभ दिन में शाहजहां के राज्य में काष्ठासंघ माथुर गच्छ पुष्करगण पोवाचार्यान्वय के भट्टारक गुणचन्द्र, सकलचन्द्र, महेन्द्रसेन के शिष्य पं. भगवती दास को श्वेताम्बर रूपचन्द्र के पास से प्राप्त हई थी, जो अब नयामंदिर दिल्ली के शास्त्र भंडार में सुरक्षित है। रचना सरल है, उसकी भाषा मादि से १५वीं-१६वीं शताब्दी की कृति जान पड़ती। मय अप्रकाशित है, प्रकाशन की बाट जोहरहा है।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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