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संव-भेद
भट्टारक इन्द्रनन्दि ने अपने नीतिसार में महबली प्राचार्य द्वारा संघ निर्माण का उल्लेख किया है। उन संघों के नाम सिंह, सत्र, नन्दि संघ, सेन संघ और देव संघ बतलाये हैं। और यह भी लिखा है कि इनमें कोई भेट नहीं है। इसमें भी निम्न संघों को जैनाभास बतलाया है। उनकी संख्या पांच है-गोपूच्छिक, श्वेताम्बर, द्रविड, यापनीय और निः पिच्छ । इन्द्रनन्दि ने कहीं भी काष्ठासंघ को जैनाभास नहीं बतलाया।
भगवान महावीर का संघ, जो उनके समय और उनके बाद निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ के रूप में प्रसिद्ध या. भद्रबाह श्रत केवलो के समय दक्षिण भारत में गया था। वह निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ ही था। वह निग्रंथ संघही बाद में मूल संघ के नाम से लोक में प्रसिद्ध हुआ । इसी महाश्रमण संघ का दूसरा भेद श्वेताम्बर महाश्रमण संघ के नाम से ख्यात हुना।
कुछ समय बाद पही निग्रन्थ मूल संघ विचार-भेद के कारण अनेक अंतभदों में विभक्त हो गया। यापनीय संघ, कर्चकसंघ, द्रविडसंघ, काष्ठासंघ और माथुरसंघ भादि के नामों से विभक्त होता गया, पोर गण-गच्छ भेद भी अनेक होते गये। किन्तु मूल संघ इन विषम परिस्थितियों में भी अपने अस्तित्व को कायम रखते हुए, मोर राज्यादि के संरक्षण के अभाव में, तथा शंवादि मतों के आक्रमण आदि के समय भीमपने अस्तित्व के रखने में समर्ष रहा है। अन्तभेद केवल निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ में ही नहीं हुए किन्तु श्वेतपट महाश्रमण संघ भी अपने अनेक प्रन्तर्भदों में विभक्त हुथा विद्यमान है। पार पाम संप के दो भेदों में विभक्त होने के समय जो स्थिति बनो वह अपने मन्तमदों के कारण और भी दुर्बल हो गया, किन्तु अपनी मूल स्थिति को कायम रखने में समर्थ रहा । मूलसंध
मूल संघ कब कायम हुआ और उसे किसने कहाँ प्रतिष्ठित किया, इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिला । अहंद्वलि द्वारा स्थापित संघों में मूलसंघ का कोई उल्लेख नहीं मिलता। सिंह, नन्दि, सेन और देव इन संघों को किसी ने जैनाभास नहीं बतलाया। ये संघ मूलसंध के ही अन्तर्गत हैं। इस कारण ये मूलसंघ नाम से उल्लेखित किये गये हैं।
मलसंघ का सबसे प्रथम उल्लेख 'नोण मंगल' के दान पत्र में पाया जाता है,जो जैन शि०सं०भा०२१० ६०-६१ में मुद्रित है । यह शक सं० ३४७ (वि० सं० ४८२) सन् ४२५ के लगभग का है । जिसे विजयकीति के लिये उरनर के जिन मन्दिरों को कोंगणि वर्मा ने प्रदान किया था। दूसरा उल्लेख पाल्तम (कोल्हापुर) में मिले शक सं०४११ (वि० सं० ५१६) के दान पत्र में मिलता है, जिसमें मूलसंघ काकोपल प्राम्नाय के सिंहनन्दि मुनि को प्रलक्तक नगर के जैन मन्दिर के लिए कुछ ग्राम दान में दिये हैं। दानदाता थे पुलकेशी प्रथम के सामन्त सामियार । इन्होंने जंन मदिरों की प्रतिष्ठा कराई थी, और गंगराजा माधव द्वितीय तथा प्रविनीत ने कुछ और ग्रामादि दान में दिये थे।
कोण्डकुन्दान्वय का उल्लेख वदन गुप्पे के लेख न०५४ भा०४१०२८ में पाया जाता है। जो शक से. ७३० सन् ५०८ का है और उत्तरवर्ती अनेक लेखों में मिलता है। कौण्डकुन्दान्वय का उल्लेख मर्करा के ताम्रपत्र में पाया जाता है, जिसका समय शक सं० ३८८ है, पर उसे सन्देह की कोटि में गिना जाता है। इसमें कोण्हकुन्दान्वय के साथ देशीयगण का उल्लेख मिलता है। कुन्दकुन्द का वास्तविक नाम पयनन्दि था। किन्तु कोण्डकुन्द स्थान से सम्बद्ध होने के कारण पे कुन्दकुन्द के नाम से प्रासद्ध हुए।
शिलालेख संग्रह के दूसरे भाग में प्रकाशित १० और १४ नम्बर के लेखों में मूलसंघ के वीरदेव' मोर चन्द्रनन्दि नामक दो प्राचार्यों के नाम उल्लिखित हैं।
मूलसंघ में अनेक बहुश्रुत तार्किकशिरोमणि योगीश विद्वान प्राचार्य हुए हैं जिन्होंने वीर शासन को मोक में चमकाया। उनमें कुछ नाम प्रमुख हैं-कुन्दकुन्द, उमास्वाति (गृपिच्छाचार्य) बताकपिच्छ, समन्तभद्र, देवनन्दी, पात्रकेसरी, सुमतिदेव, श्रीदत्त, अकलंक देव, और विद्यानन्द प्रादि।
१. नीतिसार श्लोक ६-७, तत्त्वानुशासनादि संग्रह पृ० ५५ २. देखो, जन लेख सं० भाग २, पृ० ५५ और ६०