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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ उसने सात रात्रि तक निरन्तर वर्षा की। जिससे वर्षा का पानी पार्श्वनाथ के कंधों तक पहुंच गया। उसी समय धरणिंद्र का शासन कम्पायमान हुआ. उसने भगवान पार्श्वनाथ का उपसर्ग जानकर उनकी रक्षा को। उपसर्ग दूर होते ही भगवान को केवलज्ञान हो गया और इन्द्रादिक देव केवलज्ञान कल्याणक को पूजा करने आये । कमठ के जीव उस संवरदेव ने अपने अपराध की क्षमा मांगी और वह उनकी शरण में आया । उस समय जो अन्य तपस्वी ने भी सब पाश्र्वनाथ को शरण में पाकर सम्यक्त्व को प्राप्त हुए । प्रफुल्ल कुमार मोदी से सवउ' भी शाबिना में पमकोति के इस ग्रंथ का रचना काल शक सं० REE बतलाया है। जबकि उन्धकतने समय के साथ शक या विक्रम शब्द का प्रयोग नहीं किया, तब उसे शक संवत् कैसे समझ लिया गया । दूसरे पद्मकीति ने अपनी जो गुरु परम्परा दी है उसमें चन्द्रसेन, माधवसेन, जिनसेन और पद्यकीति का नामोल्लेख है। ग्रन्थ में कनाटक महाराष्ट्र भाषा के शब्दों का उल्लेख होने से उन्हें दाक्षिणात्यं मान कर शक संवत् की कल्पना कर डाली है। हिरेआवली के लेख में चन्द्रप्रभ और माधवसेन का उल्लेख देखकर तथा चन्द्रप्रभ को चन्द्रसेन मान कर उनके समय का निश्चय किया है, जबकि उस लेख में माधवसेन के शिष्य जिनसेन का कोई उल्लेख नहीं है। ऐसी स्थिति में पत्रकीति के गुरु जिनसेन का कोई उल्लेख न होने पर भी उक्त चन्द्रप्रभ ही चन्द्रसेन पौर जिनसेन के प्रगुरु होंगे। यह कल्पना कुछ संगत नहीं कही जा सकती, और न इस पर से यह फलित किया जा सकता है कि ग्रन्थकता पद्मवाति शक सं०६६E के गथकार हैं--इसके लिए किन्हीं अन्य प्रामाणिक प्रमाणों को खोज आवश्यक है नये प्रमाणा के अत्वषण हाने पर नय प्रमाण सामन पायेंग, उन पर से पन काति का समय विक्रम का दशवा या ग्यारहवीं शताब्दी निश्चित होगा। अनन्तवीर्य अनन्तवीर्य-जिनका मटोल (वीजापुर बम्बई) के शिलालेख में निर्देश है। यह शिलालेख चालुक्य जयसिंह द्वितीय और जगदेकमल्ल प्रथम (ई० सन् १०२४) के समय का उपलब्ध हुया है। इसमें कमल देव भट्टारक, विमुक्त वतीन्द्र सिद्धान्तदेव, अष्णिय भट्टारक, प्रभाचन्द्र और अनन्तवीर्य का क्रमश: उल्लेख है। ये अनन्तवीर्य समस्त शास्त्रों के विशेषकर जैनदर्शन के पारगामी थे । अनन्तवोर्य के शिष्य गुणकोति सिद्धान्त भट्टारक पौर देवकीति पण्डित थे। ये संभवत: यापनीय संघ और सूरस्थगण के थे। कनकसेन चंद्रिकावाट सेनान्वय के विद्वान वीरसेन के शिष्य थे। यह बोरसेन कुमारसेनाचार्य के संघ के साधनों के गुरु थे। इनका समय पी० बी० देशाई ने ८६०ई० बतलाया है। और कुमारसेन का समय ८६० ई० निर्दिष्ट किया है। चिकार्य ने मुलगण्ड में एक जैन मन्दिर बनवाया था। उसके पुत्र नागार्य के छोटे भाई अरसार्य ने, जो नीति और आगम में कुशल था, और दानादि कार्यों में उद्युक्त तथा सम्यक्त्वी था। उसने नगर के व्यापारियों की सम्मति से एक हजार पान के वृक्षों के खेत को मन्दिरों की सेवा के लिये कनकसेन को शक संवत्० ८२४ सन् १०३ ई० को अर्पित किया था । अतएव इन जनकसेन का समय ईसा की नौवीं शताब्दी का उपान्त्य और दशवीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। -(जैन लेख संग्रह भा० २ पृ० १५८) अर्हनन्दी अड्ड कलिगच्छ और बलहारिगण के सिद्धान्त पार दृष्टा सकलचन्द्र सिद्धान्त मुनि के शिष्य अप्पपोटि १. जैनिज्म इन साइंटिया पृ० १०५ २.जैनिज्म इन साउथ इंडिया, पी. वी. देशाई ० १३६
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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